Monday, November 30, 2009

लखनऊ वाले अंकल

च्कंवल कहां है?ज् पहली बार मेरे घर आए,मेरे कॉलेज के समय सहपाठी रहे रहमान ने पूछा तो , मैंने कहा च्लखनऊ वालों के यहां गया है, वे वापस भोपाल जाने की सोच रहे हैं उनके बेटे उसके दोस्त हैं उन्हीं से मिलने गया है।ज्
च्लखनऊ वाले? ये क्या नाम हुआ?Ó
'नाम? क्या नाम है अमरजीत लखनऊ वाले अंकल का।Ó मैंने अपनी पत्नी से पूछा।
'मुझे तो पता नहीं, मैं तो कुछ सालों से ही हूं यहां,आपको पता होना चाहिए।Ó
'यार कभी पूछा ही नहीं,ये भी हमारे साथ 84 के दंगों के बाद यहां आए थे,जैसे लोग हमें कानुपर वाले कहते हैं,ये लखनऊ वाले हैं। दो घर छोडक़र आगरा वाले और हमारे ऊपर वाले क्वाटर में दिल्ली वाले रहते हैं। कानपुर से आने के बाद मुझे स्कूल मेंं इंद्रप्रीत नहीं कानपुर कहते थे।Ó
'अजीब बात है,दंगों को हुए 25 साल बीतने को हैं आज भी लोग नामों से अधिक शहरों से पहचाने जा रहे हैं,लेकिन अब ये कहां जा रहे हैं।Ó
'भोपाल,वहां अंकल के दूर के रिश्तेदारों का अच्छा ढाबा है लेकिन कोई औलाद नहीं है,सोच रहे हैं वहीं जाकर सैटल हो जाएं। सालों पंजाब में संघर्ष करने के बाद भी वह अपना कारोबार नहीं जमा सके और थोड़ा बहुत जो अब जमने लगा था तो अब ये नया विवाद।Ó मेरा इशारा डेरा विवाद की ओर था।
नाम को लेकर रहमान के शब्द मुझे 25 साल पीछे की यादों में ले गए जब मैं अपने परिवार के साथ दंगों के बाद कानपुर से लौट रहा था। हमारे जैसे हजारों परिवार अंबाला स्टेशन पर रुके हुए थे। पंजाब बंद होने के कारण अंबाला स्टेशन पर रुकना ही हमारे पास एकमात्र विकल्प था। दंगों का खौफ सबके चेहरों पर साफ दिखाई दे रहा था। सहमी हुई आंखों से उन दो काली रातों के मंजर नहीं निकल रहे थे,जब साक्षात मौत दंगइयों के रूप में उनके सामने खड़ी थी। कोई छिपा था,कईयों को उनके हिंदू पड़ोसियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर पनाह दे रखी थी। दिल्ली,कानपुर,आगरा और मेरठ सहित कई शहरों से आए विभिन्न लोग अब दंगों के कारण एक थे,सभी अपने साथ बीती वहशी दरिंदगी को एक दूसरे के साथ साझा कर रहे थे।
1947 में हुए दंगों को झेलने के बाद पाकिस्तान से पलायन करके दिल्ली और यूपी के कई अन्य शहरों में आए सिख परिवारों का पंजाब में कोई रिश्तेदार नहीं था। लखनऊ वाले अंकल भी हमारे साथ ही स्टेशन पर बैठे थे,जिनका पंजाब में कोई रिश्तेदार नहीं था लेकिन चूंकि हमारे पैतृक घर धूरी में था इसलिए वे हमारे साथ ही आ धूरी आ गए। अपने तीन छोटे भाइयों,बूढ़े माता-पिता और अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ। यहां आकर उन्होंने अपनी आजीविका के लिए सब्जी की रेहड़ी लगा ली जिसमें उनके भाई भी साथ हो लिए। लेकिन इतने बड़ परिवार को चलाने के लिए शायद यह काफी कम थी। कभी लखनऊ के जाने-माने आढ़ती आज किस कदर जिंदगी से जूझ रहे थे। वक्त धीरे धीरे बदलने लगा,हम सबकी स्थिति भी बदलने लगी। अंकल के भाई अलग हो गए,सभी ने अपने अपने कारोबार में लग गए। लेकिन अब डेरा सच्चा सौदा विवाद ने एक बार फिर से सभी के मन में भय पैदा कर दिया।
'सचमुच हालत खराब हो रहे हैंÓ रहमान ने मेरी सोच को भंग करते हुए कहा। 'क्या तुम भी यही सोच रहे हो।Ó
'नहीं,मैं ये नहीं सोच रहा था,हालात तो फिर भी सुधर जाएंगे,मैं यह सोच रहा था कि अब यदि अंकल भोपाल चले गए तो उन्हें किस नाम से बुलाया जाएगा,लखनऊ वाले या धूरी वाले ....।

Wednesday, November 11, 2009

रोजी-रोटी

रजिंदर और मेरी जिंदगी में काफी समानता है। हम दोनों के परिवार रोजी-रोटी के लिए अपने-अपने पैतृक शहरों को छोडक़र पराए लोगों के बीच चले गए। मेरे परिवार ने जहां सत्तर के दशक में अपनी जन्मभूमि धूरी को छोडक़र कानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं रजिंदर के पिता कानपुर के गांव झींझक को छोडक़र धूरी शूगर मिल में नौकरी करने के लिए आ बसे। लेकिन वक्त ने दोनों को धोखा दिया। दोनों परिवार सालों की मेहनत के बाद बसे बसाए कारोबार को छोडक़र फिर से सुरक्षा की तलाश में जन्म भूमि की ओर चल दिए।
अक्टूबर 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कत्ल के बाद तीन दिन और रातें मेरे परिवार ने किस तरह बिताईं, उसकी याद आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर उसी तरह ताजा है जैसे कल की बात हो। बसे बसाए कारोबार को उखाडक़र नई जमीन पर लगाना कितना मुश्किल होता है, इसका अहसास शायद उन लोगों को न हो जिनके परिवारों को इस तरह उजडक़र कहीं जाना न पड़ा हो। पूरी एक पीढ़ी बीत जाती है वही मुकाम हासिल करने में।
परिवार के सभी जन मिलकर मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से कर पाते । सरकारी स्कूलों तक में बच्चों की पढ़ाई जारी रख पाना उनके बस की बात नहीं होती थी। 31 अक्टूबर और एक नवंबर की रातों के दंगों ने किस प्रकार हजारों परिवारों सडक़ पर ला दिया, बेशक ये अब इतिहास की बातें हो गई हों लेकिन जब भी अक्टूबर का महीना आता है पुराने घावों से मवाद फिर से रिसने लगता है।
रजिंदर और मैं अक्सर एक साथ कानपुर की बातें करते। छुट्टियों में धूरी से कानपुर में अपने गांव झींझक जाता । हर मंगलवार को गांव से कानपुर में पनकी में हनुमान के मंदिर उसका परिवार जाता। हम भी कई बार उस मंदिर में जा चुके थे। कानपुर की बातें ही दरअसल हमारे निकट आने का कारण थीं। चूंकि वह जन्मा और पला बढ़ा ही धूरी में था इसलिए कभी लगता ही नहीं था कि वह पंजाबी नहीं है।
कानपुर से आकर हमने अपना कारोबार फिर से जमाना शुरू किया । लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिली। पंजाब में जल रही आतंकवाद की आग भी इसका कारण थी। इसी क्रम में लगातार दो बड़ी घटनाओं ने पूरे पंजाब को हिलाकर रख दिया। जगराओं के पास रेलगाड़ी में कई लोगों को आतंकियों ने गोलियों से भून दिया। रजिंदर का परिवार काफी सहम गया। लेकिन भवानीगढ़ के पास जब एक धागा मिल में यूपी से मजदूरों को मारा गया तो रजिंदर के परिवार का भरोसा यहां से पूरी तरह से उठ गया। उन्होंने पंजाब को छोडऩे का फैसला कर लिया। मैंने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा तो रजिंदर ने कहा जैसे तुम कानपुर छोडक़र अपने शहर आ गए अब मैं तुम्हारे शहर को छोडक़र अपने गांव जा रहा हूं। उसका मतलब झींझक से था। भगवानपुरा शूगर मिल को रजिंदर के परिवार सहित दर्जनों परिवार चले गए। कुछ समय तक तो उससे खतो-किताबत चलती रही लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गई।
मिलों में अपने लोगों (पंजाबियों)को नौकरियां दिलाने के लिए आतंकियों ने जो खूनी कार्रवाइयां की उससे सहमे भगवानपुर शूगर मिलों में काम करने वाले कई परिवार भी पलायन कर गए लेकिन अब धूरी की भगवानपुरा शूगर मिल को यूपी के बाहुबली नेता डीपी यादव ने खरीद रखा है।

Saturday, November 7, 2009

..अब उसे स्पेलिंग नहीं भूलते!

..अब उसे स्पेलिंग नहीं भूलते!


चटाक ..!
तमाचे की आवाज इतनी ज्यादा थी कि हॉल में अखबार पढ़ते हुए मेरा ध्यान बैडरूम की ओर गया। यह तमाचा मेरे बेटे जसकंवल की गाल पर उसकी मम्मी की ओर से पड़ा था जो उनके पास बैठा पढ़ रहा था।
'क्या हुआ,Ó मैंने जानना चाहा।
'कितने दिनों से एक ही वर्ड के स्पेलिंग पर अटका हुआ है। अभी तक याद नहीं हो रहे इसे । आज टेस्ट है , फिर गलत करके आएगा।Ó मेरी पत्नी ने मारे गए थप्पड़ की जस्टिफिकेशन दी।
'रोज इसकी कॉपी में स्पेलिंग की गलतियां आती है, पता नहीं ध्यान किधर है इसका, सारा दिन टीवी देखता रहता है। पढऩे को कहो तो महाश्य को नींद आ जाती है।
मैं उठकर अंदर गया तो देखा जसकंवल की गाल लाल हो गई है। अपने बाएं हाथ से गाल को मसलते हुए वह किताब पर लिखे दिसंबर के स्पेलिंग को घूर रहा था। आंसू उसकी आंखों में भरे अवश्य हुए थे लेकिन अभी उनका उसकी लाल गाल पर बहना बाकी था।
मेरे कमरे में आते ही वह थोड़ा सा और सतर्क होते हुए अपनी मम्मी की ओर बढ़ गया। उसे लगा कि कहीं एक और थप्पड़ न पड़ जाए। खैर, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। अंग्रेजी के अक्षरों के स्पेलिंग को याद करना बचपन में मेरे लिए भी कभी आसान नहीं रहा लेकिन जसकंवल का चेहरा देखकर अचानक मेरे मन में जसविंदर का चेहरा कौंध गया।
16 साल पहले की बात है। एक दिन मेरे परिचित अंकल जो एक फोटोग्राफर थे ,मुझे अपनी दुकान पर बैठाकर कहीं काम से चले गए। मैं पहले भी छुट्टी वाले दिन अक्सर उनकी दुकान पर बैठता रहा था।
तभी एक 17-18 साल का युवा,जिसके चेहरे पर अभी दाढ़ी मूंछ फूट ही रही थी ,दुकान के बाहर खड़ा होकर कुछ पढऩे लगा। बी ए एल डब्लू ए एन टी,बलवंत , एस टी यू डी आई ओ स्टूडियो। शीशे वाला दरवाजा खोलकर वह अंदर आ गया। बड़े अदब से बोला एच ई एल एल ओ हैलो, एस आई आर सर।
मुझे कुछ अटपटा सा लगा, हैलो कहने का यह क्या अंदाज हुआ! लेकिन मैंने भी हैलो बोल दिया। दुकान का बोर्ड पढ़ते समय मुझे लगा कि वह दुकान के नाम को इसलिए अक्षरों में पढ़ रहा है ताकि पक्का कर सके कि वह सही दुकान पर आया है । लेकिन जब हैलो सर भी उसने उसी अंदाज में बोला तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।
यह था जसविंदर। दुबला -पतला सा। संतरी रंग के साधरण से कुर्ता पायजामा पहने वह काफी सुंदर दिख रहा था। उसने जेब से अंकल की दुकान की एक पर्ची निकाली और उसी अंदाज में फिर से मुझे अपनी पासपोर्ट साइज की फोटो देने को कहा। मैंने देखा , ग्रामीण सा लगने वाला जसविंदर अंग्रेजी में बोलता है लेकिन बोलने से पहले हर अक्षर के पहले स्पेलिंग बोलता है। स्पेलिंग सहित वह वाक्य काफी तेजी से बोल रहा था। वह फोटो लेकर चला गया। जब तक अंकल नहीं आए मैं उसी के बारे में सोचता रहा। वह, बार-बार हर अक्षर के स्पेलिंग क्यों बोल रहा था लेकिन मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर उस समय तक नहीं मिला जब तक अंकल नहीं आए। मैंने अंकल को बताया कि एक अजीब सा लडक़ा आया था जो हर शब्द बोलने से उसका एक एक स्पेलिंग बोल रहा था। अंकल ने बताया कि वह जसविंदर है और उसे हर शब्द के स्पेलिंग जुबानी याद हैं और कमाल यह है कि कभी कोई स्पेलिंग गलत नहीं बोलता। लेकिन स्पेलिंग को याद करने की उसने बहुत बड़ी कीमत अदा की है।
अंकल ने बताया कि जसविंदर खालसा स्कूल में दसवीं का विद्यार्थी था। हर विषय में अव्वल रहने वाले जसविंदर के लिए अंग्रेजी गौरीशंकर की चोटी से कम न थी। अंग्रेजी की क्लास में अक्सर उसे डांट पड़ती। लेकिन एक दिन अंग्रेजी के अध्यापक ने गुस्से में उसे बहुत बुरा भला कहा और पूरी क्लास के सामने अच्छा खासा जलील किया। ताकीद किया कि वह उनकी क्लास में तब तक न आए जब तक उसे अपने पाठ के स्पेलिंग अच्छी तरह से याद नहीं होते।
जसङ्क्षवदर को अध्यापक की यह बाद दिल को लग गई। उस दिन के बाद उसने शब्दों के स्पेलिंग याद करने में जी तोड़ मेहनत की। अंग्रेजी के स्पेलिंग में वह इतना रम गया कि मानसिक तवाजन खो बैठा। अक्षर को बोलने से पहले उसके स्पेलिंग बोलना अब उसकी आदत का हिस्सा हो गया है। अब जसविंदर कभी स्पेलिंग नहीं भूलता लेकिन ये स्पेलिंग अब उसके किस काम के।

इन्द्रप्रीत सिंह

Monday, November 2, 2009

पपी क्यों नहीं पाल

'पापा, हम एक पपी (पिल्ला) क्यों नहीं पाल लेते।Ó मेरे छह साल के बेटे जसकंवल ने कल मुझसे यह सवाल किया। वह अपने घर की खिडक़ी से बाहर पड़ोस के दो छोटी बच्चियों को अपने कुत्ते टाइगर के साथ खेलते देख रहा था।
'नहीं बेटा हम किराये के मकान में रहते हैं, जब अपना घर बनाएंगे तो पाल लेंगे।Ó
'तब तक मैं फिर किससे खेलूं, मेरा तो कोई ब्रदर और सिस्टर भी नहीं है।Ó
जसकंवल का पहला सवाल तो मुझे कुछ साधारण सा लगा लेकिन अब दूसरे सवाल ने तो उसके अकेलेपन की चोट सीधी मेरे मन पर की।। चंडीगढ़ जैसे शहर में नौकरी करने वाला कोई व्यक्ति किराये पर रहकर एक से ज्यादा बच्चों को कांवेंट स्कूल में पढ़ाने के बारे में क्या सोचा जा सकता है? शायद नहीं, इसलिए हमने कभी दूसरे बच्चे के बारे में नहीं सोचा। लेकिन हमारी ये योजनाएं छोटे बच्चों को किस तरह अकेला कर देती हैं इसका अहसास मुझे जसकंवल के कोमल मन से निकले सवाल से हुआ।
बढ़ती आबादी को नियंत्रण करने की सरकारी योजनाओं और महंगाई ने मिलकर बच्चों को अकेला कर दिया है। सच भी तो है। हम तीन भाई बहन हैं। बचपन में कभी लगा ही नहीं कि दोस्तों की जरूरत है। हम घर पर ही एक दूसरे के साथ खेल लेते थे। उन दिनों दूरदर्शन पर परिवार नियोजन के विज्ञापनों में अक्सर छोटा परिवार रखने की सलाह दी जाती। विज्ञापन के साथ दो बेटों और एक बेटी को अपने माता- पिता के साथ खड़ा दिखाया जाता 'छोटा परिवार -सुखी परिवारÓ जब कुछ बड़े हुए तो इसी विज्ञापन से एक बेटा गायब हो गया । अब 'हम दो हमारे दो Ó के विज्ञापन आने शुरू हो गए। लेकिन आज जब जवान हुए तो एक दिन उसी विज्ञापन पर निगाह गई। विज्ञापन से एक बेटा और गायब हो गया। माता पिता के साथ केवल एक बेटी ही रह गई। बेटी की जगह बेटा भी हो सकता था लेकिन ऐसा करना भ्रूण हत्या जैसे कलंक को और बढ़ावा देने जैसा होता।
मेरी माता की भी अक्सर मुझसे यह शिकायत होती,' बेटा एक बच्चा तो घर में और होना चाहिए। तुम्हारे, जसकंवल के तो चाचा, बुआ जैसे रिश्तेदार हैं इसके बच्चे किसे चाचा और बुआ कहेंगे। एक बच्चे अकेला-अकेला महसूस करता है।Ó मैं हर बार उनकी बात यह कहते हुए टाल देता, 'चलो सोचते हैं।Ó
कई बार सोचा भी एक बेटी हो तो परिवार पूरा हो जाए लेकिन जसकंवल की पढ़ाई, घर के बढ़ते किराये और महंगी होती अन्य चीजों ने कभी इस सोच के बीज को अंकुरित होने नहीं दिया। आसपास अपने दोस्तों मित्रों को देखता हूं तो ज्यादातर उनमें ऐसे ही हैं जिन सभी के घर में एक ही बेटा या बेटी है। अक्सर उनसे बात भी होती है। उनकी सोच भी मेरे जैसी ही है। 'कहां यार एक के ही खर्चे पूरे हो जाएं वही बहुत है। इतनी महंगाई में इनकी ही परवरिश हो जाए , बहुत है।Ó
लगता है स्कूल की बढ़ती फीसें, घर के किराये और महंगाई बच्चों के सभी रिश्तों को खत्म कर देंगी। उन्हें खेलने के लिए पपी ही लेकर देने पड़ेंगे।


इन्द्रप्रीत सिंह

Saturday, October 3, 2009

रेड लाइट

रेड लाइट

'देख बहन 3100 से एक पैसा कम नहीं लूंगी, देना है तो दो नहीं तो मैं खाली चलीÓ
'नहीं.. इतने पैसे तो मेरे पास नहीं हैं, ये पांच सौ रख ले, मैं तुम्हें खुशी से दे रही हूं।Ó
'पांच सौ, ये भी रहने दो, हम अपना रेट नहीं खराब करतीं। Ó
कांता किन्नर का टका सा जवाब सुनकर मेरी पत्नी का चेहरा उतर गया। वह उसे खाली हाथ नहीं लौटाना चाहती थी। लेकिन उसकी मांग पूरी करने की हिम्मत भी हमारे में नहीं थी। शादी के दो साल बाद हमारे घर लडक़ा हुआ था। पहला बच्चा होने की जो खुशी कुछ दिन पहले हमारी झोली पड़ी थी। कांता की तीखी जुबां उसे काफूर कर रही थी।
मेरा बेटा जसकंवल मेरे घर बठिंडा में हुआ था लेकिन ट्रांस्फर होने के कारण मुझे चंडीगढ उस समय आना पड़ा जब मेरी पत्नी सातवें महीने में थी। डिलिवरी हमने बठिंडा में ही करवाई। वैसे तो बठिंडा में ही किन्नर घर पर बधाई दे गए थे। मेरी माता ने अपनी यथशक्ति के हिसाब से उन्हें भेंट भी दे दी थी। लेकिन जब हम बच्चे को लेकर चंडीगढ़ अपने घर लौटे तो दूसरे ही दिन किन्नर कांता अपने जत्थे के साथ सुबह होते ही घर आ धमकी। उसने 3100 रुपए नकद और एक सूट लेने की जिद्द पकड़ ली।
मेरा बेटा आपरेशन के जरिए हुआ था। उस पर काफी खर्च हो चुका था। हमारी वित्तीय हालत ऐसी नहीं थी कि कांता की मांग हम सहर्ष पूरी कर सकते।
'तू क्यों बार-बार खाली हाथ लौटने की बात कर रही है। मैंने तुम्हें बताया न कि मेरे ससुराल में हम बधाई ले चुके हैं। अब एक बार फिर से ..Ó
'अरे तो क्या हुआ? पहला बच्चा है , लडक़ा हुआ है, बड़ा होकर अफसर बनेगा। हम कोई ज्यादा तो नहीं मांग रहे। कांता अपना हठ छोडऩे को राजी नहीं थी।Ó
'.. पर हम कहां से दें इतने पैसे, चल ठीक है, पांच सौ के साथ एक सूट भी ले जा। अब तो ठीक है।Ó मेरी पत्नी ने फिर कांता से विनती की।
'बहन मैंने तो पहले ही बता दिया है कि 3100 से एक पैसा कम नहीं लूंगी। हमें रोज रोज तो आना नहीं है। रब तेरे घर वाले को भी और तरक्की दे। Ó
मैं अभी कुछ बोलना ही चाहता था कि हमारे मकान मालिक ने कहा, 'लेना है तो लो नहीं तो चलते बनो । जब तुमसे कह दिया है कि ये पहले ही बधाई अपने शहर में दे चुके हैं तो क्यों जिद्द कर रही हो तुमÓ
'अरे अब ये कौन है.. ,Ó जोर से ताली बजाती हुई कांता की साथी बोली।
'मैं इस मकान का मालिक हूं। अब चलती हो या बुलाऊं पुलिस को।Ó अंकल ने गुस्से से कहा।
'पुलिस को बुलाएगा.. जा बुला। यहीं सारे कपड़े उतार दूंगी .. समझा न हमसे पंगा मत लेना।Ó कांता भी गुस्से से गुर्राने लगी। माहौल में काफी गर्मी आ गई। अंकल भी कहां मानने वाले थे। उन्होंने कांता की बाजू पकड़ कर उसे बाहर निकालना शुरू कर दिया। लेकिन तभी मेरी पत्नी तेजी से आगे आई और उसने कांता को छुड़वा दिया।
'नहीं अंकल रहने दो, इन्हें कुछ मत कहो, अपशगुन होगा। मैं कुछ करती हूं।Ó वह कांता को अपने कमरे में ले गई और हाथ जोडक़र उसकी विनती करने लगी।
ये देखकर मुझे भी काफी गुस्सा आया। मैंने कहा यदि ये कुछ नहीं लेना चाहती तो न ले,कोई जबरदस्ती नहीं है।
लेकिन मेरी पत्नी नहीं मानी। वह उसे खाली हाथ नहीं लौटाना चाहती थी। उसके मन में किन्नर के मुंह से निकलने वाले अपशब्दों को लेकर वहम था। काफी मिन्नत तरले के बाद कांता मान गई। लेकिन तब तक तनाव काफी बढ़ गया था। कांता पांच सौ रुपए लेकर चली गई।
मुझे भी दफ्तर को निकलना था। सारे रास्ते जो कुछ घर पर हुआ वही दिमाग में घूम रहा था। पता ही नहीं चला कब रेड लाइट क्रॉस हो गई।
'रोको रोको,Ó पेड़ के पीछे से निकले ट्रैफिक पुलिस कर्मी ने मुझे रोका।
'लायसेंस निकाल, आरसी दिखा।Ó मेरी मोटर साइकिल रोकते हुए उसने आदेश जारी कर दिया और चाबी निकालकर मुझे बाइक साइड पर लगाने को कहा।
'सॉरी यार.. आगे से नहीं होगा। पहली बार गलती हुई है । छोड़ दोगे तो बड़ी कृपा होगी। Ó आग्रह भरे लिहाज से मैंने कहा।
'पकड़े जाने पर सभी ऐसा कहते हैं, अभी एक्सिडेंट हो जाता तो .. Ó सिपाही ने कहा।
'यार मैं प्रैस (पत्रकार) में हूं, थोड़ा तो लिहाज करो।Ó बाइक खड़ी करते हुए मैंने कहा।
'पत्रकार हो तो क्या रूल तोड़ोगे।Ó
'नहीं ,भाई साहब बात वो बात नहीं है, मैं जरा टेंशन में था। Ó
'क्यों क्या हुआ? Ó सिपाही ने पूछा। मैंने कांता से हुए विवाद के बारे में उसे बताया।
'फिर तो बहुत बड़ी रेड लाइट से बचकर आए हो .. ये तो छोटी सी है। इस बार छोड़ देता हूं। आगे से ध्यान रखना। कभी रेड लाइट क्रॉस नहीं करना। हमारा कुछ नहीं ,आपकी सुरक्षा के लिए ही बोल रहा हूं।Ó मैं धन्यवाद करके चलता बना। शायद दिन अच्छा था। दो -दो रेड लाइटों से एक साथ बच गया ।

इन्द्रप्रीत सिंह

Saturday, September 19, 2009

मां, तुम्हें कैसे माफ कर दूं

तीन पन्नों का पत्र हाथ में लिए बीमार रश्मी की आंखों से अविरल आंसुओं की धारा बह रही थी। बहती भी क्यों न आखिर 22 साल बाद उसकी बेटी ने उसे खत लिखा था। यह बात अलग है कि खत के जरिए उसने ऐसा तमाचा रश्मी की आत्मा पर मारा था कि उसे अंदर तक झकझोर दिया। वास्तव में यह पत्र उसके अपने द्वारा अपनी बेटी रोहिणी को लिखे पत्र का जवाब था। रश्मी नहीं जानती थी कि जहर से भरे शब्दों का पत्र लिखकर रोहिणी उसके पूरे अतीत को उसकी आंखों के सामने रख देगी
वह दो बार खत पढ़ चुकी थी और इस आशा में कि शायद तीसरी बार पढऩे से पत्र में लिखे शब्दों के अर्थ बदल जाएंगे, वह फिर से पढऩे लगी।

श्रीमति रश्मी जी
आपका पत्र मिला,मुझे नहीं पता कि आपने मेरा पता कहां से लिया लेकिन 22 साल बाद आपको अपनी बेटी को याद आई ,इसकी मुझे खुशी है। मेरी खुशियों में आग लगाकर आपने बरसों पहले जो अपना नया आंगन रोशन किया उससे आप मां जैसा पवित्र दर्जा खो चुकी हैं। इसलिए पत्र की शुरूआत आपको नाम लेकर कर रही हूं लेकिन मेरे संस्कार भी इतने मरे हुए नहीं हैं कि मैं आपको मां न कह सकूं ,आखिर आपकी वजह से मेरा अस्तित्व है।
यह ठीक है कि पापा से झगडक़र तुमने किसी और के साथ अपना घर बसा लिया लेकिन क्या मैं यह जान सकती हूं कि आप दोनों के झगड़े में मेरा क्या कसूर था? अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ रहने की आपकी महत्वाकांक्षा की मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी क्या आपको इस बात का अंदाजा है? पांच साल की जिस बच्ची से आपने अपनी ममता की छांव सिर्फ इसलिए छीन ली क्योंकि आपको उसके पापा से नहीं बल्कि किसी और से प्यार था? अच्छा होता कि ये सभी बातें आप अपनी शादी से पहले पापा को बतातीं
मां,मुझे अच्छी तरह से याद है जब पापा दुकान पर चले जाते तो किस तरह तुम फोन पर किसी अनजान आदमी से घंटों बातें करतीं,धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए उन रोमानी बातों से अनजान मैं इंतजार करती रहती कि कब तुम फोन छोड़ोगी और मेरी उन शिकायतों को सुनोगी जो मुझे मेरी टीचर या सहपाठियों से होती।
मैं जानती हूं तुम चंद्र मामा से प्यार करती थी लेकिन क्या यह जरूरी था कि तुम मुझे उन्हें मामा कहने को कहती जबकि तुम्हारा रिश्ता उनके साथ कुछ और था। मुझे नहीं पता कि पापा को तुम्हारी ये हरकतें कितनी पता थीं लेकिन अक्सर उनके साथ तुम्हारे होने वाले झगड़े में उनका नाम आने से अब मुझे यकीन हो चुला है कि हर बार झगड़े की वजह चंद्र अंकल ही रहे होंगे। चंद्र अंकल जो शादी से पहले आपके न सिर्फ पड़ोस में रहते थे बल्कि सहपाठी भी थे, के साथ आपकी शादी क्यों नहीं हुई मैं नहीं जानती लेकिन आप मेरे बालमन का फायदा उठाकर उन्हें तब तब मिलतीं जब नाना- नानी मौसी के यहां जाते तो तुम्हें दो चार दिन अपने घर बुला लेते ताकि घर की सुरक्षा हो सके।
मुझे आज भी वो कयामत की रात याद है जब खेलते-खेलते मेरे पांव के अंगूठे पर काफी चोट आ गई,मैं देर शाम तक कराहती रही। नानी के घर हम अकेले थे और तुम मुझे जल्दी सुलाने के लिए बजिद थीं। पर पांव में दर्द के कारण नींद मेरी आंखों से काफूर थी,पता नहीं तुमने मुझे कौन सी दवा दी,मुझे कुछ ही देर बाद हलकी सी नींद आ गई। जब नींद खुली तो तुम किसी गैर आदमी के साथ खुसर फुसर कर रही थीं। मैं तब नहीं जानती थीं कि वह सब क्या था लेकिन आज सब समझती हूं। मुझे अच्छी तरह से याद है यह आवाज पापा की नहीं थी,पापा नहीं तो और कौन? अभी मैं इसके बारे सोच ही रही थी कि बाहर किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज ने आप दोनों के होश फाख्ता कर दिए, थोड़ा ऊंचे बोलते ही मैं पहचान गई कि यह चंद्र अंकल हैं लेकिन इतनी रात को हमारे घर क्यों आए हैं और सीढिय़ां चढक़र छत के रास्ते से अपने घर क्यों जा रहे हैं? मुझे समझ नहीं आ रहा था। कपड़े पहनकर आप दरवाजा खोलने गई।
ये पापा थे। उन्हें फिर से शराब पीए अचानक आए देखकर आप सहम गईं। पापा जोर जोर से बोल रहे थे,मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था । मुझे मालूम था कि पापा आज फिर तुम्हें मारेंगे क्योंकि उन्होंने आज बहुत पी रखी है। पर्दे के पीछे सहमे खड़े मैंने देखा, पापा ने जोर से तुम्हें तमाचा मारा और बाहर निकल गए। तुम रोते- रोते उन्हें कोस रही थीं। तुम्हारी आंखों की नींद उड़ चुकी थी तो मेरे पैर का दर्द। पता नहीं कब आंख लग गई।
अगले दिन नाना नानी भी आ गए। तुमने उन्हें अपने घर जाने से साफ मना कर दिया। लेकिन पता नहीं नाना ने मेरे बारे में क्या बात की? लेकिन मुझे अब अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उन्होंने तलाक में मुझे बाधा बताया होगा। तुमने एक बार भी मेरे बारे में नहीं कहा और मौसी के जरिए मुझे पापा के पास भिजवा दिया। मैं कितने दिन रोती रही। पापा मुझे चुप करवाते और मेरे मन से तुम्हे निकालने के लिए क्या- क्या बातें करते,बताते कि तुमने नया बुआय फ्रैंड रख लिया है। धीरे धीरे दिन बीतते गए,मैं रोज स्कूल में तुम्हारा इंतजार करतीं कि शायद कभी तुम आओ,शायद तुम्हें मेरी याद खींच लाए लेकिन तुम कभी नहीं आईं। पापा मुझे स्कूल के लिए तैयार करते और छोडक़र आते ,फिर लेने आते । धीरे-धीरे मेरे मन पटल से तुम्हारी याद धूमिल होने लगी। दादी पापा को कई बार मेरे लिए नई मां लाने को कहती लेकिन पापा मना कर देते।
कुछ सालों बाद दादी भी हमें छोडक़र चली गई,मैं और पापा अकेले रहे गए। पापा ने अब शराब पीना भी छोड़ दिया लेकिन तुम्हें भुलाने के लिए उन्होंने जितनी शराब पी,उसने उनके गुर्दे खराब कर दिए। मैं जानती हूं पापा मुझसे कितना प्यार करते थे,इसलिए मुझे छोडक़र जाने से पहले उन्होंने रवि जैसे सुशील लडक़े के हाथों में सौंपकर अपनी आंखें बंद कर लीं।
मां, तुम्हें भूलने के लिए तो शायद मुझे वक्त लगा हो लेकिन पापा को मैं कभी नहीं भूल सकती और पत्र में तुमने जो माफ करने की बात की है तो बताओ मां, मैं तुम्हें कैसे माफ कर दूं? और तुम्हें माफ करके मैं उन माओं का समर्थन नहीं कर सकती जो अपनी देह सुख के लिए बच्चों की कोमल भावनाओं से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आतीं। अच्छा होगा तुम मुझे अब सदा के लिए भूल जाओ,क्योंकि मैं ऐसा कर चुकी हूं
रोहिणी।

Wednesday, July 29, 2009

जनता कॉलोनी

जनता कॉलोनी

जनता कॉलोनी आज फिर अखबारों की सुर्खियों में थी। वजह भी खास थी। भारी मुशक्कत के बाद आखिर जिला प्रशासन 11 एकड़ जमीन पर 35 वर्ष से कब्जा किए बैठे झोंपड़पट्टी वालों को हटाने में कामयाब रहा। अब यहां मल्टीनैशनल कम्पनी मल्टीप्लेक्स या मॉल बनाएगी। शहरों में अब जमीन है भी कहां? और जो है उस पर इन झोंपड़ पट्टी वालों ने कब्जा कर रखा है। जिला प्रशासन के अधिकारी सैकड़ों लोगों को घर से बेघर करके फूले नहीं समा रहे। फूले भी क्यों न समाएं आखिर उनकी एक साल की मेहनत आज रंग लाई थी।
अखबारों में आज दूसरी बार स्वर्ण सिंह के फोटो छपे थे। पहले उस दिन छपे, जब छह महीने पहले प्रशासन ने दिसम्बर की हाड कांपती सर्द हवाओं के बीच इन झोंपडिय़ों को तोडऩे के लिए बुलडोजर चलाने के आदेश दिए। स्वर्ण सिंह उस ठेकेदार के बुलडोजर का ड्राइवर था जिसने इन झोंपडिय़ों को गिराने की शुरूआत करनी थी। उधर प्रशाासन के इस रवैये के खिलाफ झोंपड़पट्टी वालों में व्यापक रोष था। 35 साल पहले अपने बेटे के साथ राजस्थान के कबाइयली इलाके से यहां मजदूरी करने कुछ लोगों के साथ बुजुर्ग रमाबाई पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की मिन्नतें कर रही थी,
भगवान के लिए कुछ दिन और ठहर जाओ..ऐ साहब रोक दे न इन्हें,मैं कहां अपने इन नन्हें बच्चों को ले जाऊंगी,गोद में दो साल के अपने पोते को उठाए रमा गुहार लगा रही थी। दो साल के इस नन्हे मुन्ने पर पिछले 15 दिनों में यह दूसरी मार पड़ रही थी। जन्म देते ही मां गुजर गई और 15 दिन पहले शहर की एक ऊंची इमारत पर मजदूरी कर रहा इसका बाप गोपाल भी गिरकर अपनी पत्नी के पास चला गया और अब इसकी घर से बेघर होने की बारी थी। रमा की गुहार का पुलिस और प्रशासन के कर्मियों पर कोई असर नहीं था।
ऐ बता न कहां जाऊंगी इतनी ठंड , थोड़े दिन ठहर जा ,मैं खुद ही चली जाऊंगी। रमा को आगे आया देखकर कुछ और लोग भी अपनी फरियाद लेकर आ गए।
कितनी बार तो तुम लोगों से कह चुके हैं कि यह जगह सरकारी है इसे खाली कर दो तब तो सुन नहीं रहे थे ,ये तो तुम्हारे रोज के बहाने हैं।
नहीं ये बहाना नहीं है साहब हम सच कह रहे हैं, हम चले जाएंगे। बेघर होने के डर से चार पांच छोटे बच्चे भी अपने आप को एक पतली सी चद्दर में लपेट कर आगे आए।
ऐ चलो यहां से, क्या तमाशा लगा रखा है,बड़ा अधिकारी बच्चों पर झपटा। बुलडोजर वाला कहां है?
यहां हूं साहब,स्वर्ण सिंह ठंड से जुड़ चुके हाथों को मलता हुआ आगे आ गया।
क्या कर रहे हो तुम, अपना काम क्यों शुरू करते । बड़े साहब की एक और कडक़ आवाज।
पर साहब ये बच्चे!
क्या बच्चे.. ..
नहीं मेरा मतलब ये कहां जाएंगे साहब इतनी ठंड में ,कुछ दिन और रुक जाते हैं। सर्दी और प्रशासन से लड़ रहे गरीबों को देखकर स्वर्ण सिंह का भी हौंसला उनके मकानों को तोडऩे का नहीं बन रहा था।
अब मुझे तुम बताओगे,मुझे कब क्या करना है,साहब स्वर्ण सिंह पर दहाड़ा। कई अखबारों के फोटोग्राफर भी अपनी अखबारों में इन टूटते आशियानों के फोटो छापने के लिए पहुंच चुके थे। कोई बच्चों की फोटो खींच रहा था तो कोई बड़े साहब के साथ बहस रहे स्वर्ण सिंह की। आखिर गरीब के लिए गरीब का दिल ही पसीजा।
ये ठेकेदार कहां है, शर्मा जी,जाइये बुलाइये उसे .. बड़े साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर था। मीडिया के लिए अच्छा खासा मसाला तैयार हो रहा था। फोटोग्राफर मोबाइल से अपने अपने संपादकों और पत्रकारों को इस घटनाक्रम के बारे में बता रहे थे।
पुलिस भारी मात्रा में पहले ही मौजूद थी। स्वर्ण सिंह को अड़ते देखकर झोंपड़पट्टी वाले भी हल्लाशेरी दिखाने लगे। पांच मिनट पहले उनकी गुहार अब हक की लड़ाई में बदल गई।
ये क्या लगा रखा है स्वर्ण तूने, बुलडोजर क्यों नहीं चला रहा? अपनी गाड़ी से उतरकर ठेकेदार भी आगे आया।
ठेकेदार जी मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि इतनी सर्दी में ये बेचारे कहां जाएंगे,हम तो ये काम कुछ दिन बाद भी कर सकते हैं।
ये फैसला करना तुम्हारा काम नहीं है, अफसरों का है। तू वही काम कर रहा जिसके लिए तुझे तनख्वाह मिलती है। ठेकेदार ने स्वर्ण सिंह को समझाना चाहा।
मैं ये नहीं कर सकता,स्वर्ण ने टका सा जवाब दे दिया।
जानता है क्या कह रहा है तू,लगता है तुझे अपनी नौकरी प्यारी नहीं है। ठेकेदार ने धमकी दी।
इतने लोगों की बददुआ लेकर तो कोई नौकरी कर भी नहीं सकता। अपने सिर पर बंधा परना गुस्से में उतारकर फेंकते हुए स्वर्ण चलता बना। ठेकेदार ने दूसरे बुलडोजरों के ड्राइवरों की थोड़ी ना नुकर सुनने के बाद झोंपडिय़ां गिराना मान लिया। लेकिन स्वर्ण जो काम कर गया उसने झोंपड़पट्टी वालों के दिल बहुत जगह बना ली और सभी ने मिलकर प्रशासन के काम का जोरदार विरोध किया। भारी पुलिस बल के बावजूद अधिकारियों को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा। तीन महीने की मोहलत देकर वे चले गए।
अगली सुबह के अखबार स्वर्ण सिंह की कहानियां ही बयान कर रहे थे। लेकिन अब जब प्रशासन ने दो तीन बार की और मुशक्कत के बाद जमीन खाली करवाकर मल्टी नैशनल कम्पनी को बेच दी तो करोड़ों रुपए में बिकी इस जमीन पर बनने वाले मॉल की काल्पनिक कहानियां ही अखबारों की सुर्खियां थीं। हां, कुछ अखबारों ने कहीं-कहीं स्वर्ण सिंह की सिंगल कॉलम में फोटो सहित बाक्स आईटम भी छापी थी।



इन्द्रप्रीत सिंह

Friday, July 24, 2009

हम पिकनिक मनाने नहीं आए?

क्या हम यहां पिकनिक मनाने आए हैं , लगभग चीखते हुए पसीने से तर किसान शिंगारा सिंह ने कहा। उसकी आवाज इतनी जोरदार थी कि अंग्रेजी अखबार की 22-23 साल की पत्रकार कामिनी के पसीने छूट गए। हड़बड़ाती हुई वह पीछे हटी, नहीं .. मेरा मतलब ..।
क्या है तुम्हारा मतलब , कभी हमारी भी परेशानी अपनी खबर में लिखने की कोशिश की है। बरसों से हम चीख चीख कर बताने की जो कोशिश कर रहे हैं। आज शहर वालों को जरा सी तकलीफ क्या हुई, गिद्दों की तरह हमारे इर्द इक_े हो गए। जाओ भाग जाओ यहां से .. कुछ नहीं बताना हमें किसी को , हमें पता तुम शहरियों को कौन सी भाषा समझ में आती है। जेठूके गांव का शिंगारा अभी भी लगातार बोलता जा रहा था।
दरअसल भारतीय किसान यूनियन के किसानों ने चंडीगढ़ के 16-17 सेक्टर के चौंक पर धरना दे दिया। तमाम अंग्रेजी और हिंदी अखबार के पत्रकारों को इस धरने से शहरवासियों को हो रही परेशानी की चिंता थी। सो फोटोग्राफर जहां उस एंगल से फोटो खींच रहे थे तो पत्रकार किसानों से बता रहे थे कि उनके धरने से शहर वासियों को कितने परेशान हो रहे हैं। कोई दफ्तर को जाने में लेट हो रहा है तो किसी को जरूरी शॉपिंग के लिए सेक्टर 17 की मार्किट में जाना था।
मेरा तो बस नहीं चलता, पता नहीं हमारे इन बेवकूफ किसानों को कब अक्ल आएगी? मैं तो कहता हूं,बंद करो खेतों में अनाज उगाना। कर्जाई तो पहले से हैं, कुछ और चढ़ जाएगा, क्या फर्क पड़ता है। एक बंूद दूध की शहरों में मत भेजो , पीने दो सालों को डिब्बे वाला दूध। शिंगारा सिंह की गर्मी भरी बातें सुनकर कुछ और किसान नेता भी आगे आ गए।
अच्छा आपकी मांगें क्या हैं? शिंगारा सिंह को ठंडा करने के इरादे से एक हिंदी अखबार के युवा पत्रकार ने कहा।
कोई ज्यादा बड़ी मांग नहीं है हमारी, हम चाहते हैं कि जैसे तुम लोगों को सूचकांक के हिसाब से तनख्वाह मिलती है ऐसे ही हमारी फसल का दाम हमें मिले। भाकियू के प्रधान ने अपनी मांग बताई।
इससे तो महंगाई बढ़ जाएगी, आटा बीस रुपए किलो हो जाएगा
तो क्या हमने तुम्हें पालने का ठेका ले रखा है? बीस- बीस रुपए के कोल्ड डिं्र्रक घटक जाते हो तब महंगाई की ऊंचाई का पता नहीं चलता। तुम्हारी ये दो सौ रुपए वाली जींस तीन सालों में दो हजार की हो गई है क्या तुमने पहननी छोड़ दी। शिंगारे का गुस्सा ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
शिंगारा सिंह का बिफरना जायज था आखिर किसान कब तक अपनी छोटी- बड़ी मांगों के लिए सरकारों का मुंह ताकता रहे। देश वासियों को पेट भरने के लिए उसका बाल-बाल कर्जाई हो चुका है। शहरियों के बच्चे कान्वेंट में पढ़-पढक़र इंजीनियर डॉक्टर बनते जा रहे हंै जबकि किसानों के बच्चे उन सरकारी स्कूलों तक में नहीं जा पा रहे हैं जहां तीन- तीन सौ बच्चों को पढ़ाने वाला केवल एक अध्यापक है।
कोई किसान मीलों चलकर यहां अपनी मर्जी से नहीं आता, मजबूरी में आता है । जब पानी सिर से ऊंचा हो जाता है तब आता है। अखबार में लिखना है तो किसानों का दर्द लिखो जिनकी वजह से रोटी खाते हो और इतना समझ लो जिस दिन किसान समझ गया न .. उस दिन तुम्हारे अखबारों की हैड लाइन में केवल किसान ही होंगे.. तुम्हारे अंबानियों की रोजाना बढऩे वाली तनख्वाहों के ब्यौरे नहीं।

Tuesday, July 14, 2009

किट्टी पार्टी

बसंती को मतली हो रही थी। शाइना आंटी समझ गईं थी कि उसे फिर से गर्भ ठहर गया है। पूछने पर बसंती ने उन्हें बताया कि चौथा महीना चल रहा है। आंटी सतर्क हो गईं। सतर्क भी क्यों न हों। यह बसंती का छठा गर्भ था लेकिन हर बार बच्चा चौथे से छठे महीने के बीच में होकर मर जाता और उसकी गोद सूनी रह जाती। आंटी उसके खाने पीने का ख्याल रखने लगीं। बसंती पिछले दो सालों से उनके पड़ोस में झाड़ू बर्तन का काम कर रही है। गरीब होने के कारण बड़े डाक्टरों के पास नहीं जा पाती।
इस बार पूरा ख्याल रखना होगा,बसंती तू कल मेरे साथ अस्पताल चलना ,तेरे पूरे टैस्ट करवाकर आएंगे। शाइना आंटी ने बसंती को समझाते हुए कहा।
अस्पताल.. नहीं आंटी मेरे पास तो पैसे .. और फिर बड़ी बीबी के घर का काम भी पड़ा है। बसंती अपनी बेबसी जाहिर करते हुए बोली।
कुछ नहीं होगा.. पैसे की चिंता मत कर.. मैडिकल कॉलेज में दिखा आएंगे। वहां मेरी एक अच्छी दोस्त डॉक्टर लगी हुई है। वह हमारी मदद कर देगी। आंटी ने बसंती को भरोसा दिलाया। तू अपने घरवाले को बोल देना कि कल तू मेरे साथ अस्पताल जा रही है नहीं तो बाद में चिक चिक करेगा..। बसंती ने हां में सिर हिला दिया।
दरअसल गर्भ के चौथे से छठे महीने के दौरार हर बार बसंती के गर्भ का मुंह खुल जाता और गर्भ गिर जाता। दो बार तो उसकी बहुत मुश्किल से जान बची। डॉक्टर ने कई बार कहा कि पति पत्नी दोनों पूरे टैस्ट करवाकर चांस लें लेकिन अनपढ़ गोपाल के भेजे में अक्ल की यह बात कौन डाले? उसे तो बस हर हाल में बच्चा चाहिए। और वह अपना टैस्ट क्यों करवाए.. वह तो ठीक ही है तभी तो गर्भ ठहरता है। बार- बार ऐसे बहाने बनाकर वह अपने टैस्ट करवाने को टालता रहता।
टैस्ट करवाने के बाद शाइना आंटी उसे घर ले आईं। वह थोड़ी परेशान से दिख रही थीं। अगले दिन उनके यहां किट्टी पार्टी थी।
शाइना आंटी के घर में उनके पति के अलावा और कोई नहीं था। दोनों बेटे विदेश में सैट हो गए थे जबकि बेटी शादी के बाद अपने घर चली गई।
क्या हुआ आंटी आज आपके चेहरे पर मुस्कान गायब है.. कोई परेशानी। 525 वाली मिसेज शर्मा ने आते ही पूछा।
हाँ बात तो कुछ है.. आंटी आप हमसे कुछ छिपा रहीं हैं,मिसेज शर्मा के साथ आई उनकी किरायेदार ज्योति भी बोली।
नहीं कोई खास परेशानीं तो नहीं.. बसंती की मुझे फिक्र हो रही है।
कौन बड़ी बीबी की नौकरानी की.. क्यों क्या हुआ उसे । 529 वाली मिसेज सिंह ने पूछा। धीरे धीरे करके आंटी की किट्टी मैम्बर्स आने लगी थीं।
कल उसे डॉक्टर के पास लेकर गई थी। उसने उसे पूरा चैक किया.. और बताया कि उसे पांच महीने अस्पताल में रहना पड़ेगा। शायद कई महंगे टीके भी लगाने पड़ें। नहीं तो इस बार भी ..
ओह.. ये तो बहुत बुरी खबर सुनाई आपने आंटी.. बेचारी .. इतने पैसों का इंतजाम कैसे करेगी। नीरू ने सहानुभूति जताते हुए कहा।
इतने में बसंती सभी के लिए चाय ले आई।
क्यों न हम सब मिलकर उसके लिए कुछ करें.. आखिर कितने पैसों की जरूरत होगी। शाइना जी। नलिनी ने सलाह दी।
डॉक्टर ने मुझसे का है कि लगभग तीस हजार रुपए खर्च आएगा। पांच महीने रोटी,दवाइयां,टैस्ट और अस्पताल में रहना,फिर शायद आपरेशन भी करना पड़े। शाइना आंटी ने हिसाब लगाकर बताया।
ओह.. ये तो काफी ज्यादा है। आंटी सरकारी अस्पताल में भी इतना खर्च.. कैसे इलाज करवाएगा गरीब आदमी। मिसेज शर्मा ने कहा। हम भी अगर पांच-पांच सौ इक_ा करें तो भी मुश्किल से दस हजार ही इक_ा होगा।
पांच सौ रुपए.. इतने, मैं तो नहीं दे सकती इतने .. आप लोगों को पता ही है बच्चों की इतनी फीस ,कार के पैट्रोल का खर्च और उस पर घर का खर्च । मैं तो पहले ही इतनी मुश्किल से गुजारा कर रही हूं। बड़ी बीबी ने कहा। सौ दो सौ लेने हैं तो मैं दे सकती हूं।
बड़ी बीबी ,बसंती दो सालों से आपके यहां काम कर रही है.. इतना तो अपने यहां कोई जानवर भी रहे तो उससे प्यार हो जाता है। ये तो फिर भी इंसान है। शाइना आंटी ने समझाना चाहा।
शाइना तेरे तो बच्चे बाहर हैं,घर का कोई खर्च है नहीं.. पर दूसरे के घरों का खर्च कैसे चलता है.. तुम्हें क्या पता है?
क्यों मुझे क्यों नहीं पता.. क्या मैंने बच्चे नहीं पाले
तब की बात और थी शाइना आज महंगाई आसमान को छू रही है,नाराज होकर बड़ी बीबी जाने लगीं।
अरे आंटी आप बैठिए तो सही.. ज्योति ने उन्हें रोकने की कोशिश की।
छोड़ यार.. हम यहां कुछ देर गप शप करने आए हैं कि इन भिखनंगों की समाज सेवा करने। ज्योति का हाथ जोर से झटकते हुए बड़ी बीबी बाहर चली गईं। ज्योति का हाल देखकर और किसी ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की।
छोडि़ए आंटी.. मुझे तो पहले से ही पता था। अपने कुत्ते टॉमी पर तो ये हर महीने दो से तीन हजार रुपए खर्च कर सकती हैं किसी इंसान पर नहीं। बड़ी बीबी की पड़ोसन ज्योति ने कहा।
आंटी आप बसंती को अस्पताल में भर्ती करवा दीजिए.. और देखिए उसके खाने और दवाइयों की फिक्र मत कीजिए। इनके (पति) एक बहुत अच्छे दोस्त दस गरीबों रोगियों के लिए रोजाना अस्पताल में खाने भिजवाते हैं। दवाइयों के लिए रैडक्रास से कह देंगे। अब तक चुप बैठी निशा ने जब ये कहा तो सबके चेहरे खिल गए।
शाइना आंटी की आपकी डॉक्टर दोस्त क्या इसका आपरेशन मुफ्त नहीं कर सकती? ज्योति ने पूछा।
मैं बात करुंगी, वह मान जाएगी इसका मुझे पूरा भरोसा है। शाइना आंटी ने बताया।
आज यदि मेरी किट्टी निकल गई तो मुझे दस फीसदी काटकर दे देना। यह मेरी ओर से बसंती के इलाज के लिए। ज्योति ने कहा।
वाह.. ऐसा हो जाए ,फिर तो बात ही बन जाएगी। नीरू चहकी। मेरे पास एक आइडिया है,जिसकी किट्टी निकलेगी वह दस फीसदी यानी एक हजार रुपए देगा और बाकी मैम्बर्स सौ रुपए । यानी हमारे पास लगभग 2900 रुपए हर महीने इक_े हो जाएंगे। पांच महीने में पंद्रह हजार। खाने और दवाइयों का इंतजाम तो पहले ही हो गया है। क्यों कैसी रहीं।
नीरू के इस आयडिया पर सब को पसंद आया। तय हुआ कि इस क्रम को आगे भी जारी रखा जाएगा ताकि और कोई बसंती बिना इलाज न रह सके।
चाय के खाली कप उठाने आई बसंती सब सुन रही थी। उसकी आंखें भीगी हुई थीं। वह शाइना आंटी के पैरों में गिर पड़ी।
अरे..रे..रे ये क्या कर रही बसंती ,रोती क्यों है पगली? तेरी वजह से ही तो हमें इस किट्टी का एक नया मकसद मिला है।

बालिग

बालिग

लुधियाना बम विस्फोट के दूसरे दिन ही जब अखबार में इस प्रकार की पूर्व घटनाओं पर मेरी नजर गई तो 18 साल पहले जगराओं के पास रेल यात्रियों को अंधाधुंध गोलियों से भूनने की घटना में मेरे दिमाग में फिर से तरोताजा हो गई, इन मरने वाले यात्रियों में हमारा किराये दार संजीव भी था।
बेहद सादे स्वाभाव का संजीव, जो लुधियाना की किसी फैक्टरी में काम करता था अक्सर देर शाम वाली गाड़ी से लौटता। यह जानते हुए भी प्रदेश में आतंकवाद की गिरफ्त में है, काम पर जाना और इसी अंतिम गाड़ी से लौटना उसकी मजबूरी थी।
'क्या हुआ, किस सोच में डूबे हुए होÓ, मेरी पत्नी रोहिणी की आवाज ने मेरी सोच की निद्रा को भंग किया, और चाय का कप मेरी तरफ बढ़ा दिया।
'यह खबर पढ़ी तुमने,Ó चाय लेते हुए मैं ने कहा
'कौन-सी..Ó
'लुधियाना के सिनेमा में बम धमाके की,छह बिहारी मजदूर मर गए हैं। बेचारे..Ó
'हां,मीलों दूर से बेचारे अपने घर का चूल्हा जलता रखने के लिए यहां फैक्ट्रियों में खुद को जला रहे थे,क्या पता था कि आतंक की आग में खुद भी झुलस जाएंगे और घर के चूल्हे भी ठंडे पड़ जाएंगे।Ó रोहिणी की दिल की गहराई से निकली इस हूक ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया।
रह रहकर मुझे इन मजदूरों के बच्चों का ख्याल आ रहा था,क्या अब वे भी निशू की तरह रेलवे स्टेशनों पर भटकते,चोरियां करते लोगों की मार खाने को मजबूर होंगे।
'आप फिर कहीं खो गएÓ
'नहीं, मैं इसी प्रकार की पुराने बम धमाकों में से जगराओं में हुए धमाके के बारे में सोच रहा था जिसमें 19 लोगों मारे गए थेÓ
'इनमें से कोई आपका खास भी थाÓ
'हां, हमारे किराये पर रहने वाला संजीव भी इस आतंक की आग का निशाना बना था,छह महीने ही पहले ही बेचारे की शादी हुई थी और गर्भ में पल रहा निशु पैदा होने से पहले ही यतीम हो गया।Ó
'ओह माई गॉड.. क्या हुआ उसकाÓ
'तुम्हें याद है जब दो महीने पहले निरंजन भैया से मिलने उनके घर गए थे और स्टेशन पर उन्होंने हमें एक 15 साल का फटेहाल लडक़ा दिखाया थाÓ
'हां हां याद आया जिसे कुछ लोग जेब काटने के आरोप में पीट रहे थे और निरंजन भैया ने छुड़ाया थाÓ
'हां ये निशु उन्हीं की साली का लडक़ा है जिसकी शादी संजीव के साथ हुई थी। निरंजन मेरा बचपन का दोस्त है उसी के कहने पर हमने संजीव,जिसकी नई नई शादी हुई थी को किराये पर रखा था।Ó
'फिर क्या हुआÓ, रोहिणी जानने को इच्छुक थी।
'हुआ तो वह सब जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। संजीव की मौत के बाद सरकार की ओर से मिली मुआवजे की राशि लेने के लिए एक तरफ संजीव के भाई -मां और दूसरी ओर उसकी पत्नी व ससुर के बीच टकराव हो गया। तीन महीने तक चले इस झगड़े को बढ़ता देख डिप्टी कमिश्नर साहिब ने बहुत बढिय़ा फैसला दिया। उन्होंने आधी राशि संजीव की मां को और आधी संजीव के उस बच्चे के नाम कर दी जो अभी पैदा ही हुआ था। यह सारी रकम निशु के बालिग होने तक उसके नाम बैंक में जमा करवा दी और उसके पोषण पर खर्च के लिए इस राशि का मिलने वाला ब्याज संजीव की पत्नी नीरा को मिलना तय हो गया।Ó
'नीरा का क्या हुआÓ,रोहिणी की जिज्ञासा काफी बढ़ गई थी।
'भर जवानी में विधवा हुई नीरा दूसरी शादी करवाना चाहती थी,पर ऐसा करने पर उसे बैंक से मिलने वाला ब्याज बंद हो जाना था। वह ससुराल से अपने पिता के घर आ गई और एक दो साल रहने के बाद दिल्ली में उसने किसी को बिना एक बताए एक लडक़े से शादी कर ली। निशु को वह उसके बूढ़े नाना-नानी को सौंप गई। बच्चे को पालने के बदले वह उन्हें हर महीने ब्याज के रूप में मिलने वाली राशि का आधा हिस्सा उन्हें दे जाती। कुछ समय तक तो वह देती रही लेकिन बाद में उसने वह भी बंद कर दिया और साथ ही अपने मां बाप के पास आना भी।Ó
'तो क्या निशु को उसके नाना-नानी ने ठीक से नहीं पालाÓ,रोहिणी ने पूछा।
'वे बूढ़े तो खुद किसी के मोहताज थे,उसे क्या पालते। वह तीन साल के निशु को उसकी दादी के पास छोड़ कर जिम्म्ेवारी से मुक्त हो गए। जिस तरह सांझी मां को कोई नहीं रोता वही हाल निशु का हुआ। दादी निशु की शरारतों से तंग आकर उसे नाना-नानी के यहां छोड़ देती और नाना-नानी अपने बीमार रहने का बहाना बनाकर दादी के पास छोड़ देते। इस तरह वह न तो सही ढंग से पढ़ सका और न ही किसी का प्यार पा सका। सालों साल बीतते गए। इसी बीच उसकी दादी और नानी भी चल बसीं, बीमार नाना ने बिस्तर पकड़ लिया। निश्ुा को एक हॉस्टल वाले स्कूल में डाला गया तो वह वहां से भाग खड़ा हुआ और फिर कभी स्कूल नहीं गया। बस अब स्टेशनों और सडक़ों पर आवारागर्दी करना,चोरी करना और पकड़े जाने पर मार खाना ही उसकी नियति बन गई है।Ó
ट्रिंग ट्रिंग..ट्रिंग ट्रिंग
'आप फोन देखो मैं तो चली,रसोई में काम करनेÓ। चाय के कप उठाते हुए रोहिणी बोली
'किसका फोन था,बड़ी देर बातें करते रहेÓ? रसोई से सब्जी काटने के लिए लाते हुए रोहिणी बोली।
'निरंजन का फोन था,कमाल हैं लोग भी,Ó
'क्या हुआ,क्या कह रहे थे,मेरी भी भाभी से बात करवा देते।Ó रोहिणी का इशारा निरंजन की पत्नी की ओर था।
'निरंजन बता रहा था कि सालों बाद कल उसकी साली नीरा का फोन आया था,अपने बेटे निशु के बारे में पूछ रही थी।Ó
'अब सालों बाद उसकी याद आई है?Ó
'याद क्यों न आती,अगले साल निशु बालिग जो होने जा रहा है.. ..Ó।


इन्द्रप्रीत सिंह

वीकली ऑफ

वीकली ऑफ

आज वीकली ऑफ के दिन खूब मजे करने के इरादे से सुबह उठते ही रवि ने किरण से दो तीन बढिय़ा चीजें बनाने को कहा और बताया कि उसके दो दोस्त अपनी बीवियों के साथ हमारे यहां लंच पर आ रहे हैं। इससे पहले की किरण रवि से पूछ पाती कि नाश्ते में आज वह क्या बनाया जाए आंखे मलते हुए रवि के बेडरूम में आ रहे रोजी और बंटी ने अपनी मम्मी को बताया कि वह इडली और डोसा खाना चाहते हैं वह बनाया जाए। पति और बच्चों की फरमाइशें सुनकर किरण रसोईघर में जाने के लिए उठी ही थी कि उसे याद आया कि सिलेंडर तो खत्म होने को है।
रवि स्कूटर पर जाकर शर्मा जी से सिलेेंडर ले आओ,यह तो खत्म होने वाला है ऐसा न हो कि मेहमान घर आ जाएं और उधर सिलेंडर खत्म हो जाए
ओह हो एक तो हफ्ते बाद एक छुट्टी आती है वो भी अब तुम्हारे घर के कामों में बर्बाद कर दूं,मुझे नहीं पता तुम खुद ही रिक्शे पर जाकर ले आओ,मुझे कुछ देर सोने दो।
मैं कैसे ला सकती हैं,बच्चों के लिए अभी नाश्ता तैयार करना है और साढ़े आठ बज गए हैं अब और कितनी देर सोना है तुम्हें,किरण ने अपनी मजबूरी जाहिर की।
जाओ यार यहां से तंग पता करो,लाना है लाओ नहीं तो खाना होटल से मंगवा लो,मुझे कुछ देर सोने दो,वीकली रैस्ट का मजा खराब मत करो
छुट्टी मनाने का इतना ही शौक है तो दोस्तों का दावत क्यों दी,खीझते हुए किरण बोली और माथे पर तिओयडिय़ां चढ़ाते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई।
बहु पानी गरम हो गया,जैसे ही यह आवाज किरण के कानों में पड़ी उसका पारा और चढ़ गया, पानी कहां से गरम करूं पिता जी सिलेंडर खत्म होने वाला और आपके बेटे को छुट्टी मनाने की पड़ी है।
एक घंटे बाद रवि उठा और शर्मा जी के यहां से सिलेंडर और मंडी से सब्जियां लाकर उसने किरण के हवाले कर दी।
नहाकर तैयार हो जाता हूं कहीं पानी न चला जाए,बच्चे कहां हैं
सिलेंडर आया देख थोड़ी ठंडी हुई किरण ने कहा 411 वालों के यहां गए हैं,खेलने।
चलो अच्छा हुआ,तुम शांति से काम कर सकोगी,नाश्ता तो कर गए हैं न, कहते हुए रवि बाथरूम में घुस गया।
कहां कर गए हैं,सिलेंडर तो चाय रखते ही खत्म हो गया था,किरण की आवाज रवि के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही टकरा कर लौट आई।
दस बजने को हैं ये शंाति क्यों नहीं आई अभी तक,सारे बर्तन साफ करने को पड़े हैं,कपड़ों से मशीन भरी पड़ी है। किरण बुदबुदाई। रवि जरा मीना के यहां फोन करके पता करना,ये
शांति की बच्ची अभी तक क्यों नहीं आई,लेकिन बाथरूम में चल रहे पानी के शोर में किरण की आवाज दब कर रह गई।
नहाकर जैसे ही रवि बाथरूम से निकला तो उसने देखा किरण बर्तन साफ करने में जुटी है। भूख ने उसके पारे को और बढ़ा दिया,अब क्या खाना भी नहीं मिलेगा
खाओगे किसमें ,एक भी बर्तन साफ नहीं है
शांति कहां हैं,जब ये वक्त पर आ नहीं सकती तो किसी और को रख लो काम पे,कम से कम खाना तो वक्त पर मिले। दो अलग अलग बातों को एक ही वाक्य में समेटते हुए रवि बोला।
तुमसे कहा था तो फोन करके मीना के यहां से पूछ लो लेकिन तुम सुनते कब हो। अब छोड़ो पांच मिनट इंतजार करो मैं बना देती हूं तुम्हें कुछ।
बुदबुदाते हुए रवि ने पूछा बाबूजी ने नाश्ता कर लिया।
हां उन्हें दूध के साथ ब्रैड दे दी थी,वैसे भी वह हलका ही नाश्ता करते हैं
नाश्ते से फ्री होते ही किरण बिना नहाए धोए रसोई में दोपहर का खाना बनाने में जुट गई।
आपके दोस्त आते ही होंगे,काम जल्दी निपटना होगा,ऐसा करो कम से कम तुम तो तैयार हो जाओ... और तुमने ये क्या कुर्ता पायजामा पहन रखा है,कम से कम कपड़े तो बदल लो
अरे भई कपड़े निकालकर तो दो,और उन्हें आने में अभी एक घंटा बाकी है
अलमारी से कपड़े भी निकाल नहीं सकते ,इन साहिब को हर चीज हाथ में चाहिए, खीझती हुई किरण अलमारी से कपड़े निकालने लगी, अभी सब्जियां काटनी हैं,आटा गूंथना है कितना काम बाकी है।
सब्जियां चढ़ाकर किरण भी नहाने चली गई।बच्चों को भी नहला कर किरण ने तैयार कर दिया।
थोडी़ देर बाद ही रवि के दोस्त और उनके बीवी बच्चे घर में आ गए। हाल में बैठाकर रवि उनकी खातिरदारी में लग गया। किरण पानी लाना,किरण खाना लगा दो,किरण ये ला दो,वो ला दो के बीच चक्कर लगाते लगाते किरण थक चुकी थी लेकिन रवि की फरमाइशें पूरी नहीं हो रही थीं।
शाम चार बजे जब सारे मेहमान चले गए तब जाकर कहीं किरण ने चैन की सांस ली।
वह थोड़ी देर लेटना चाहती थी लेकिन तभी बाबूजी के आवाज ने उसके इस अरमान पर पानी फेर दिया,बहू जरा चाय तो बना दो,सोचता हूं थोड़ी दूर टहल आऊं। चाय बनाकर जैसे ही बाबू जी को दी,बच्चे उठ गए,रवि सो चुका था। बच्चों को कुछ खिला पिलाकर अभी उसे थोड़ी फुर्सत हुई थी कि काम वाली शांति बाई ने बैल बजाकर उसके चैन में खलल डाल दिया।
शांति को देखते ही किरण भडक़ उठी,क्या शांति ये तुम्हारे आने का टाइम है,सारा काम मुझे खुद करना पड़ा,नहीं आना होता तो कम से कम बता तो दिया करो,तुम्हें मालूम है कि कितनी परेशानी हुई आज। एक ही सांस में किरण बोल गई।
क्या करूं बीबी जी आज मेरे मर्द ने काम पर नहीं जाना था,कहने लगा आज मेरे पास रह, शांति ने अपनी राम कहानी सुनानी शुरू कर दी।
चल छोड़ अब रहने दे,जल्दी से कपड़े धो ले,पानी आ गया,सारे कपड़े गंदे हो गए हैं। दो घंटे शांति के साथ कपड़े धुलाने और सफाइयों के बाद किरण डिनर बनाने में जुट गई। सबको खाना खिलाकर जब रात को बिस्तर पर लेटी तो रवि अपनी रूमानियत पर उतर आया।
अब तंग मत करो,सो जाओ चुपचाप,मैं भी थक गई हूं
क्या थक गई हूं,रोज तुम्हारा यही हाल है। कम से कम छुट्टी वाले दिन तो मान जाया करो
छुट्टी,छुटी छुट्टी तुम्हारी तो छुट्टी है मुझसे क्यों ट्रिपल शिफ्ट में काम करवा रहे हो? आखिर भडक़ उठी किरण



इन्द्रप्रीत सिंह