Monday, November 30, 2009

लखनऊ वाले अंकल

च्कंवल कहां है?ज् पहली बार मेरे घर आए,मेरे कॉलेज के समय सहपाठी रहे रहमान ने पूछा तो , मैंने कहा च्लखनऊ वालों के यहां गया है, वे वापस भोपाल जाने की सोच रहे हैं उनके बेटे उसके दोस्त हैं उन्हीं से मिलने गया है।ज्
च्लखनऊ वाले? ये क्या नाम हुआ?Ó
'नाम? क्या नाम है अमरजीत लखनऊ वाले अंकल का।Ó मैंने अपनी पत्नी से पूछा।
'मुझे तो पता नहीं, मैं तो कुछ सालों से ही हूं यहां,आपको पता होना चाहिए।Ó
'यार कभी पूछा ही नहीं,ये भी हमारे साथ 84 के दंगों के बाद यहां आए थे,जैसे लोग हमें कानुपर वाले कहते हैं,ये लखनऊ वाले हैं। दो घर छोडक़र आगरा वाले और हमारे ऊपर वाले क्वाटर में दिल्ली वाले रहते हैं। कानपुर से आने के बाद मुझे स्कूल मेंं इंद्रप्रीत नहीं कानपुर कहते थे।Ó
'अजीब बात है,दंगों को हुए 25 साल बीतने को हैं आज भी लोग नामों से अधिक शहरों से पहचाने जा रहे हैं,लेकिन अब ये कहां जा रहे हैं।Ó
'भोपाल,वहां अंकल के दूर के रिश्तेदारों का अच्छा ढाबा है लेकिन कोई औलाद नहीं है,सोच रहे हैं वहीं जाकर सैटल हो जाएं। सालों पंजाब में संघर्ष करने के बाद भी वह अपना कारोबार नहीं जमा सके और थोड़ा बहुत जो अब जमने लगा था तो अब ये नया विवाद।Ó मेरा इशारा डेरा विवाद की ओर था।
नाम को लेकर रहमान के शब्द मुझे 25 साल पीछे की यादों में ले गए जब मैं अपने परिवार के साथ दंगों के बाद कानपुर से लौट रहा था। हमारे जैसे हजारों परिवार अंबाला स्टेशन पर रुके हुए थे। पंजाब बंद होने के कारण अंबाला स्टेशन पर रुकना ही हमारे पास एकमात्र विकल्प था। दंगों का खौफ सबके चेहरों पर साफ दिखाई दे रहा था। सहमी हुई आंखों से उन दो काली रातों के मंजर नहीं निकल रहे थे,जब साक्षात मौत दंगइयों के रूप में उनके सामने खड़ी थी। कोई छिपा था,कईयों को उनके हिंदू पड़ोसियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर पनाह दे रखी थी। दिल्ली,कानपुर,आगरा और मेरठ सहित कई शहरों से आए विभिन्न लोग अब दंगों के कारण एक थे,सभी अपने साथ बीती वहशी दरिंदगी को एक दूसरे के साथ साझा कर रहे थे।
1947 में हुए दंगों को झेलने के बाद पाकिस्तान से पलायन करके दिल्ली और यूपी के कई अन्य शहरों में आए सिख परिवारों का पंजाब में कोई रिश्तेदार नहीं था। लखनऊ वाले अंकल भी हमारे साथ ही स्टेशन पर बैठे थे,जिनका पंजाब में कोई रिश्तेदार नहीं था लेकिन चूंकि हमारे पैतृक घर धूरी में था इसलिए वे हमारे साथ ही आ धूरी आ गए। अपने तीन छोटे भाइयों,बूढ़े माता-पिता और अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ। यहां आकर उन्होंने अपनी आजीविका के लिए सब्जी की रेहड़ी लगा ली जिसमें उनके भाई भी साथ हो लिए। लेकिन इतने बड़ परिवार को चलाने के लिए शायद यह काफी कम थी। कभी लखनऊ के जाने-माने आढ़ती आज किस कदर जिंदगी से जूझ रहे थे। वक्त धीरे धीरे बदलने लगा,हम सबकी स्थिति भी बदलने लगी। अंकल के भाई अलग हो गए,सभी ने अपने अपने कारोबार में लग गए। लेकिन अब डेरा सच्चा सौदा विवाद ने एक बार फिर से सभी के मन में भय पैदा कर दिया।
'सचमुच हालत खराब हो रहे हैंÓ रहमान ने मेरी सोच को भंग करते हुए कहा। 'क्या तुम भी यही सोच रहे हो।Ó
'नहीं,मैं ये नहीं सोच रहा था,हालात तो फिर भी सुधर जाएंगे,मैं यह सोच रहा था कि अब यदि अंकल भोपाल चले गए तो उन्हें किस नाम से बुलाया जाएगा,लखनऊ वाले या धूरी वाले ....।

Wednesday, November 11, 2009

रोजी-रोटी

रजिंदर और मेरी जिंदगी में काफी समानता है। हम दोनों के परिवार रोजी-रोटी के लिए अपने-अपने पैतृक शहरों को छोडक़र पराए लोगों के बीच चले गए। मेरे परिवार ने जहां सत्तर के दशक में अपनी जन्मभूमि धूरी को छोडक़र कानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं रजिंदर के पिता कानपुर के गांव झींझक को छोडक़र धूरी शूगर मिल में नौकरी करने के लिए आ बसे। लेकिन वक्त ने दोनों को धोखा दिया। दोनों परिवार सालों की मेहनत के बाद बसे बसाए कारोबार को छोडक़र फिर से सुरक्षा की तलाश में जन्म भूमि की ओर चल दिए।
अक्टूबर 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कत्ल के बाद तीन दिन और रातें मेरे परिवार ने किस तरह बिताईं, उसकी याद आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर उसी तरह ताजा है जैसे कल की बात हो। बसे बसाए कारोबार को उखाडक़र नई जमीन पर लगाना कितना मुश्किल होता है, इसका अहसास शायद उन लोगों को न हो जिनके परिवारों को इस तरह उजडक़र कहीं जाना न पड़ा हो। पूरी एक पीढ़ी बीत जाती है वही मुकाम हासिल करने में।
परिवार के सभी जन मिलकर मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से कर पाते । सरकारी स्कूलों तक में बच्चों की पढ़ाई जारी रख पाना उनके बस की बात नहीं होती थी। 31 अक्टूबर और एक नवंबर की रातों के दंगों ने किस प्रकार हजारों परिवारों सडक़ पर ला दिया, बेशक ये अब इतिहास की बातें हो गई हों लेकिन जब भी अक्टूबर का महीना आता है पुराने घावों से मवाद फिर से रिसने लगता है।
रजिंदर और मैं अक्सर एक साथ कानपुर की बातें करते। छुट्टियों में धूरी से कानपुर में अपने गांव झींझक जाता । हर मंगलवार को गांव से कानपुर में पनकी में हनुमान के मंदिर उसका परिवार जाता। हम भी कई बार उस मंदिर में जा चुके थे। कानपुर की बातें ही दरअसल हमारे निकट आने का कारण थीं। चूंकि वह जन्मा और पला बढ़ा ही धूरी में था इसलिए कभी लगता ही नहीं था कि वह पंजाबी नहीं है।
कानपुर से आकर हमने अपना कारोबार फिर से जमाना शुरू किया । लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिली। पंजाब में जल रही आतंकवाद की आग भी इसका कारण थी। इसी क्रम में लगातार दो बड़ी घटनाओं ने पूरे पंजाब को हिलाकर रख दिया। जगराओं के पास रेलगाड़ी में कई लोगों को आतंकियों ने गोलियों से भून दिया। रजिंदर का परिवार काफी सहम गया। लेकिन भवानीगढ़ के पास जब एक धागा मिल में यूपी से मजदूरों को मारा गया तो रजिंदर के परिवार का भरोसा यहां से पूरी तरह से उठ गया। उन्होंने पंजाब को छोडऩे का फैसला कर लिया। मैंने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा तो रजिंदर ने कहा जैसे तुम कानपुर छोडक़र अपने शहर आ गए अब मैं तुम्हारे शहर को छोडक़र अपने गांव जा रहा हूं। उसका मतलब झींझक से था। भगवानपुरा शूगर मिल को रजिंदर के परिवार सहित दर्जनों परिवार चले गए। कुछ समय तक तो उससे खतो-किताबत चलती रही लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गई।
मिलों में अपने लोगों (पंजाबियों)को नौकरियां दिलाने के लिए आतंकियों ने जो खूनी कार्रवाइयां की उससे सहमे भगवानपुर शूगर मिलों में काम करने वाले कई परिवार भी पलायन कर गए लेकिन अब धूरी की भगवानपुरा शूगर मिल को यूपी के बाहुबली नेता डीपी यादव ने खरीद रखा है।

Saturday, November 7, 2009

..अब उसे स्पेलिंग नहीं भूलते!

..अब उसे स्पेलिंग नहीं भूलते!


चटाक ..!
तमाचे की आवाज इतनी ज्यादा थी कि हॉल में अखबार पढ़ते हुए मेरा ध्यान बैडरूम की ओर गया। यह तमाचा मेरे बेटे जसकंवल की गाल पर उसकी मम्मी की ओर से पड़ा था जो उनके पास बैठा पढ़ रहा था।
'क्या हुआ,Ó मैंने जानना चाहा।
'कितने दिनों से एक ही वर्ड के स्पेलिंग पर अटका हुआ है। अभी तक याद नहीं हो रहे इसे । आज टेस्ट है , फिर गलत करके आएगा।Ó मेरी पत्नी ने मारे गए थप्पड़ की जस्टिफिकेशन दी।
'रोज इसकी कॉपी में स्पेलिंग की गलतियां आती है, पता नहीं ध्यान किधर है इसका, सारा दिन टीवी देखता रहता है। पढऩे को कहो तो महाश्य को नींद आ जाती है।
मैं उठकर अंदर गया तो देखा जसकंवल की गाल लाल हो गई है। अपने बाएं हाथ से गाल को मसलते हुए वह किताब पर लिखे दिसंबर के स्पेलिंग को घूर रहा था। आंसू उसकी आंखों में भरे अवश्य हुए थे लेकिन अभी उनका उसकी लाल गाल पर बहना बाकी था।
मेरे कमरे में आते ही वह थोड़ा सा और सतर्क होते हुए अपनी मम्मी की ओर बढ़ गया। उसे लगा कि कहीं एक और थप्पड़ न पड़ जाए। खैर, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। अंग्रेजी के अक्षरों के स्पेलिंग को याद करना बचपन में मेरे लिए भी कभी आसान नहीं रहा लेकिन जसकंवल का चेहरा देखकर अचानक मेरे मन में जसविंदर का चेहरा कौंध गया।
16 साल पहले की बात है। एक दिन मेरे परिचित अंकल जो एक फोटोग्राफर थे ,मुझे अपनी दुकान पर बैठाकर कहीं काम से चले गए। मैं पहले भी छुट्टी वाले दिन अक्सर उनकी दुकान पर बैठता रहा था।
तभी एक 17-18 साल का युवा,जिसके चेहरे पर अभी दाढ़ी मूंछ फूट ही रही थी ,दुकान के बाहर खड़ा होकर कुछ पढऩे लगा। बी ए एल डब्लू ए एन टी,बलवंत , एस टी यू डी आई ओ स्टूडियो। शीशे वाला दरवाजा खोलकर वह अंदर आ गया। बड़े अदब से बोला एच ई एल एल ओ हैलो, एस आई आर सर।
मुझे कुछ अटपटा सा लगा, हैलो कहने का यह क्या अंदाज हुआ! लेकिन मैंने भी हैलो बोल दिया। दुकान का बोर्ड पढ़ते समय मुझे लगा कि वह दुकान के नाम को इसलिए अक्षरों में पढ़ रहा है ताकि पक्का कर सके कि वह सही दुकान पर आया है । लेकिन जब हैलो सर भी उसने उसी अंदाज में बोला तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।
यह था जसविंदर। दुबला -पतला सा। संतरी रंग के साधरण से कुर्ता पायजामा पहने वह काफी सुंदर दिख रहा था। उसने जेब से अंकल की दुकान की एक पर्ची निकाली और उसी अंदाज में फिर से मुझे अपनी पासपोर्ट साइज की फोटो देने को कहा। मैंने देखा , ग्रामीण सा लगने वाला जसविंदर अंग्रेजी में बोलता है लेकिन बोलने से पहले हर अक्षर के पहले स्पेलिंग बोलता है। स्पेलिंग सहित वह वाक्य काफी तेजी से बोल रहा था। वह फोटो लेकर चला गया। जब तक अंकल नहीं आए मैं उसी के बारे में सोचता रहा। वह, बार-बार हर अक्षर के स्पेलिंग क्यों बोल रहा था लेकिन मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर उस समय तक नहीं मिला जब तक अंकल नहीं आए। मैंने अंकल को बताया कि एक अजीब सा लडक़ा आया था जो हर शब्द बोलने से उसका एक एक स्पेलिंग बोल रहा था। अंकल ने बताया कि वह जसविंदर है और उसे हर शब्द के स्पेलिंग जुबानी याद हैं और कमाल यह है कि कभी कोई स्पेलिंग गलत नहीं बोलता। लेकिन स्पेलिंग को याद करने की उसने बहुत बड़ी कीमत अदा की है।
अंकल ने बताया कि जसविंदर खालसा स्कूल में दसवीं का विद्यार्थी था। हर विषय में अव्वल रहने वाले जसविंदर के लिए अंग्रेजी गौरीशंकर की चोटी से कम न थी। अंग्रेजी की क्लास में अक्सर उसे डांट पड़ती। लेकिन एक दिन अंग्रेजी के अध्यापक ने गुस्से में उसे बहुत बुरा भला कहा और पूरी क्लास के सामने अच्छा खासा जलील किया। ताकीद किया कि वह उनकी क्लास में तब तक न आए जब तक उसे अपने पाठ के स्पेलिंग अच्छी तरह से याद नहीं होते।
जसङ्क्षवदर को अध्यापक की यह बाद दिल को लग गई। उस दिन के बाद उसने शब्दों के स्पेलिंग याद करने में जी तोड़ मेहनत की। अंग्रेजी के स्पेलिंग में वह इतना रम गया कि मानसिक तवाजन खो बैठा। अक्षर को बोलने से पहले उसके स्पेलिंग बोलना अब उसकी आदत का हिस्सा हो गया है। अब जसविंदर कभी स्पेलिंग नहीं भूलता लेकिन ये स्पेलिंग अब उसके किस काम के।

इन्द्रप्रीत सिंह

Monday, November 2, 2009

पपी क्यों नहीं पाल

'पापा, हम एक पपी (पिल्ला) क्यों नहीं पाल लेते।Ó मेरे छह साल के बेटे जसकंवल ने कल मुझसे यह सवाल किया। वह अपने घर की खिडक़ी से बाहर पड़ोस के दो छोटी बच्चियों को अपने कुत्ते टाइगर के साथ खेलते देख रहा था।
'नहीं बेटा हम किराये के मकान में रहते हैं, जब अपना घर बनाएंगे तो पाल लेंगे।Ó
'तब तक मैं फिर किससे खेलूं, मेरा तो कोई ब्रदर और सिस्टर भी नहीं है।Ó
जसकंवल का पहला सवाल तो मुझे कुछ साधारण सा लगा लेकिन अब दूसरे सवाल ने तो उसके अकेलेपन की चोट सीधी मेरे मन पर की।। चंडीगढ़ जैसे शहर में नौकरी करने वाला कोई व्यक्ति किराये पर रहकर एक से ज्यादा बच्चों को कांवेंट स्कूल में पढ़ाने के बारे में क्या सोचा जा सकता है? शायद नहीं, इसलिए हमने कभी दूसरे बच्चे के बारे में नहीं सोचा। लेकिन हमारी ये योजनाएं छोटे बच्चों को किस तरह अकेला कर देती हैं इसका अहसास मुझे जसकंवल के कोमल मन से निकले सवाल से हुआ।
बढ़ती आबादी को नियंत्रण करने की सरकारी योजनाओं और महंगाई ने मिलकर बच्चों को अकेला कर दिया है। सच भी तो है। हम तीन भाई बहन हैं। बचपन में कभी लगा ही नहीं कि दोस्तों की जरूरत है। हम घर पर ही एक दूसरे के साथ खेल लेते थे। उन दिनों दूरदर्शन पर परिवार नियोजन के विज्ञापनों में अक्सर छोटा परिवार रखने की सलाह दी जाती। विज्ञापन के साथ दो बेटों और एक बेटी को अपने माता- पिता के साथ खड़ा दिखाया जाता 'छोटा परिवार -सुखी परिवारÓ जब कुछ बड़े हुए तो इसी विज्ञापन से एक बेटा गायब हो गया । अब 'हम दो हमारे दो Ó के विज्ञापन आने शुरू हो गए। लेकिन आज जब जवान हुए तो एक दिन उसी विज्ञापन पर निगाह गई। विज्ञापन से एक बेटा और गायब हो गया। माता पिता के साथ केवल एक बेटी ही रह गई। बेटी की जगह बेटा भी हो सकता था लेकिन ऐसा करना भ्रूण हत्या जैसे कलंक को और बढ़ावा देने जैसा होता।
मेरी माता की भी अक्सर मुझसे यह शिकायत होती,' बेटा एक बच्चा तो घर में और होना चाहिए। तुम्हारे, जसकंवल के तो चाचा, बुआ जैसे रिश्तेदार हैं इसके बच्चे किसे चाचा और बुआ कहेंगे। एक बच्चे अकेला-अकेला महसूस करता है।Ó मैं हर बार उनकी बात यह कहते हुए टाल देता, 'चलो सोचते हैं।Ó
कई बार सोचा भी एक बेटी हो तो परिवार पूरा हो जाए लेकिन जसकंवल की पढ़ाई, घर के बढ़ते किराये और महंगी होती अन्य चीजों ने कभी इस सोच के बीज को अंकुरित होने नहीं दिया। आसपास अपने दोस्तों मित्रों को देखता हूं तो ज्यादातर उनमें ऐसे ही हैं जिन सभी के घर में एक ही बेटा या बेटी है। अक्सर उनसे बात भी होती है। उनकी सोच भी मेरे जैसी ही है। 'कहां यार एक के ही खर्चे पूरे हो जाएं वही बहुत है। इतनी महंगाई में इनकी ही परवरिश हो जाए , बहुत है।Ó
लगता है स्कूल की बढ़ती फीसें, घर के किराये और महंगाई बच्चों के सभी रिश्तों को खत्म कर देंगी। उन्हें खेलने के लिए पपी ही लेकर देने पड़ेंगे।


इन्द्रप्रीत सिंह