Wednesday, January 6, 2010

कैद का लुत्फ

फिल्म देखने का अंदाज भी कितना बदल गया है। माल्स में बने सिनेमा हाल को देखकर यही अंदाजा नहीं होता कि हम फिल्म देखने आए हैं कि मॉल। एक ही इमारत में चार चार सिल्वर स्क्रीन। शानदार हॉल। कोई बालकनी नहीं कोई बाक्स नहीं । वातानुकूलित हाल में आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर फिल्म का मजा लेते लोग। ये नजारा बड़े महानगरों में ही नहीं बल्कि बठिंडा और जीरकपुर जैसे मध्यम दर्जे के शहरों में भी देखने को अब आम मिल जाता है। सब कुछ लगजरी। सौ रुपए में मकई के दानों के साथ मिलने वाली कॉफी या कोक अब लोगों को महंगे नहीं लगते। कभी- कभी लगता है कि हम ये केवल दूसरों को दिखाने के लिए खरीदते हैं। यानी अगर फिल्म के इंटरवेल में ये सब न खरीदा तो कहीं हमारी शान न कम हो जाए।
इन मॉल्स में आकर बकवास फिल्म भी अपना ही नजारा देने लगती है। सिल्वर स्क्रीन तक ले जाने वाली इलेक्ट्रिक सीढिय़ां शुरू -शुरू में किसी को किसी हउए से कम नहीं लगतीं लेकिन एक बार डर खुल जाने के बाद यही सीढिय़ां किसी बढिया पर्यटन स्थल की तरह लगने लगती हैं।
बठिंडा शहर में पहली बार इस तरह के खुले बिग सिनेमा में फिल्म थ्री इडियट्स देखकर यह आभास हुआ कि माल्स में लोग केवल फिल्म देखने नहीं जाते। फिल्म के बहाने वह उन महानगरों की माया को भी देखते हैं जो आम लोगों के पैसे को केवल कुछ ही हाथों में केंद्रित कर रही है।
कई साल पहले तक जब टीवी पर चैनलों का प्रचलन इतना ज्यादा नहीं था, छोटे शहरों में मनोरंजन का साधन केवल इक्का -दुक्का सिनेमा घर ही हुआ करते थे। मेरे शहर धूरी में मात्र ही सिनेमा घर था। बड़े शहरों में जब फिल्में घिस- पिट जातीं तब कहीं महीनों -सालों बाद धूरी जैसे छोटे शहरों के सिनेमा हाल तक पहुंचतीं। कभी कभार हिट फिल्म को देखने की तो छोटे कस्बों में इतनी होड़ मच जाती कि फिल्म देखना भी एक तीन घंटे की कैद से कम नहीं होता था।
एक बार धूरी के सिनेमा घर में हम शोले फिल्म देखने चले गए। जून की गर्मियों में छुट्टियों की वजह से फिल्म देखने वालों की भीड़ काफी ज्यादा थी। तब 12 बज से पहला शो शुरू होता था। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि टिकट लेने में ही हमारे पसीने छूट गए। तब अब की तरह टिकटों के नंबर नहीं होते थे। फस्र्ट कम फस्र्ट था। पहले हॉल में घुसने वालों की इच्छा होती थी कि उस सीट पर बैठा जाए जिसके पास पंखों की हवा आए और सीट भी टूटी न हो। लकड़ी की कुर्सियों वाली सीटों में खासियत केवल इतनी थी कि उस पर बैठने वाली सीट में स्पिं्रग लगे होते थे जो उठते ही सीट कुर्सी के पीठ वाले हिस्से पर लग जाती।
ज्यों -ज्यों हाल भरता गया, गर्मी भी बढऩे लगी। बड़े- बड़े पंखों से धीमे -धीमे आती हवा और मद्यम पढऩे लगी। हॉल पूरा भर चुका था लेकिन तब हाउस फुल का बोर्ड लगाने का जमाना नहीं था। सीटें भर जाती तो लोग खाली जगहों पर ही और कुर्सियां लगाकर बैठ जाते लेकिन जब अतिरिक्त कुर्सियां भी भर जाती तो जमीन पर बैठकर ही फिल्म देखते। फिल्म शुरू होने से पहले ही अपने -अपने हीरो की हीरोगीरी के कसीदे पढऩा शुरू कर देते। फिल्म शुरू हुई अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि आधे से ज्यादा हाल की कमीजें उतर गईं। गर्मी और सफोकेशन के कारण आ रहा पसीना रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। जिन लोगों ने पगडिय़ां बांधी हुई थी गर्मी के कारण उन्होंने वह भी उतारकर अपने बगलों में दबा लीं। वह पसीना पोंछने के भी काम आ रही थीं। अभी गब्बर सिंह डायलॉग भी शुरू नहीं हुए थे कि लोगों ने अपनी अपनी बनियानें भी उतार लीं। फिल्म में धमेंद्र और हेमामालिनी की तुनकमिजाजी अभी चल ही रही थी कि तभी लाइट चली गई। लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। हाल के दरवाजे खुल गए। हम सभी तपती धूप में बाहर आ गए। लेकिन वाह! वह धूप में बदन पर कितनी ठंडी लग रही थी। हाल से पसीने से तर बतर निकलते हुए मानो लग रहा था कि एक घंटे की कैद से छूट रहे हों। कुछ लघु शंका का निवारण करने चले गए तो कुछ ने बंटे वाली सोडे की बोतलों में बर्फ डलवाकर राहत लेने की सोची। लेकिन मात्र दस मिनट में जनरेटर चल पड़ा और हम फिर से लगभग भागते हुए अपनी अपनी सीटों की ओर लपके। जिन लोगों की सीटें रुक गई थीं वह उनकी सीटों पर कब्जा करने वालों से लडऩे लगे। कैद फिर से शुरू हो गई। शायद ये पहली ऐसी कैद थी जिसका कैदी लुत्फ ले रहे थे।

1 comment:

Kulwant Happy said...

आईपीएस जी अब बठिंडा महानगरी रूपी बीमारी का शिकार होने जा रहा है। वहां पांच सिगनल स्क्रीन सिनेमाओं के बाद मल्टीप्लैक्स का आना और बड़े बड़े हस्पतालों का आना। इस ओर संकेत कर रहा है कि बठिंडा अब अपनी पहले वाली छवि खो देगा। दिल्लवाले दुनिया से लेकर लंडन ड्रीम्स तक बठिंडा की धूम रही है। आपका किस्सा रोचक था।