Friday, October 7, 2022

36 साल बाद कानपुर वापिस आकर......

होता घर तो होता लौटना भी, क्या करे पंछी 'अवध' की शाम लेकर... 36 साल बाद कानपुर वापिस आकर...... यह शे'अर के उर्दू प्रसिद्ध शायर सरदार पंछी ने उस समय लिखा जब 1984 के दंगों के कई सालों बाद वह अपने शहर रायबरेली वापस गए। पंछी जी बताते है कि अवध के घने-घने पेड़ों पर शाम का नजारा देखने लायक होता है। हजारों की तादाद में पक्षियों की चहचहाहट से पूरा इलाका गूंज रहा होता है। दूर-दूर से लोग इस नजारे को देखने के लिए आते हैं। सुबह होते ही यह पक्षी खाने की तलाश में दूरदराज के इलाकों में चले जाते हैं और शाम को लौट आते हैं। वे इसलिए लौटते हैं क्योंकि घने पेड़ों पर उनके घर हैं । लेकिन मैं कैसे लौटूं, मेरा तो घर ही दंगों की आग में झुलस गया। लगभग ऐसी ही हालत आज मेरी थी, जब 36 साल बाद मैं उन गलियों, मोहल्लों ,बाज़ारो में घूमा,जहाँ कभी बचपन बीता था, उन स्कूलों में गया, जिनके बैंच पर बैठकर सहपाठियों के साथ शरारतें करता रहा। आज कुछ भी वैसा नहीं है सब कुछ बदल गया है। खुली-खुली सड़कें अब तंग गलियों में बदल गई हैं। हर तरफ दुकानें ही दुकानें ,लगता ही नहीं कि यह वही शहर है जहां पैदल-पैदल हम कितनी कितनी दूर निकल जाया करते थे। खुले मैदान, आज कंक्रीट के जंगलों में बदल गए हैं। जहां ऊंची ऊंची इमारतें आसमानों को छूने की कोशिश करती दिखाई पड़ रही हैं। कभी शहर की शान हुआ करता था नटराज टॉकीज, आज एक बड़े मॉल में बदल रहा है। शायद मेरे से अगली पीढ़ी को तो यह भी नहीं पता चलेगा कि यहां कभी नटराज टॉकीज था। कितनी फिल्में यहां देखीं, मुझे खुद भी याद नहीं। कभी कभी एक पुराना टिकट उठाकर फिल्म के इंटरवेल में सिनेमा के अंदर घुस जाना और जब फिल्म देखकर बाहर आना तो लगना कि बहुत बड़ी जंग जीत ली। वक्त कितनी जल्दी चीजों को बदल देता है। यह आज इस शहर में आकर मुझे पता चला। इच्छा हुई कि अपना स्कूल देखकर आउं। गोबिंद नगर के बसंत शिक्षा निकेतन जहां मैं पढ़ा करता था। वहां जाकर देखा, स्कूल तो है पर बसंत शिक्षा निकेतन नाम का कोई स्कूल नहीं है। पूछने पर पता चला बसंत शिक्षा निकेतन का नाम सिर्फ इसलिए बदल दिया गया है क्योंकि अब मां बाप अपने बच्चों को कॉन्वेंट में पढ़ाना चाहते हैं और वह भी अंग्रेजी मीडियम में। मेरे जैसे साढे़ तीन दशक पहले पढ़ने वाले बच्चे को अपना स्कूल ,अपनी क्लास देखने की इजाजत भी नहीं मिली क्योंकि कान्वेंट स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा का ख्याल कुछ ज्यादा ही रखना पड़ता है । प्रिंसिपल ने कहा, वह मुझे अंदर क्लास में जाने नहीं दे सकती। बच्चों के पेरेंटस ऐतराज करते हैं। मन निराशा से भर गया। इन साढे तीन दशकों में सभी पुरानी टीचर्स अब रिटायर हो चुकी हैं । नौकरी से भी और कई तो जिंदगी से भी । इतने सालों बाद कानपुर आने का मकसद भी सिर्फ यही था कि जिस ताई जी के आंगन में खेला कूदा करते थे आज वह भी नहीं रहीं। उनके भोग में शामिल होने के लिए कानपुर आया था। लगता है इस शहर से जुड़ी कुछ तंदें भी कुछ सालों बाद टूट जाएंगी। पहले ही हम रिश्तों की उस पायदान पर पहुंच चुके हैं, जहां बच्चे अकेला रहना ही पसंद करते हैं। उन्हें नातों से कोई मतलब नहीं । सब रिश्ते वैसे ही सिमटते जा रहे हैं। 1979 में जब हम इस शहर में बसने के लिए आए थे। तब सबसे पहले जिस मकान में रहे आज उसकी दीवारों को गिरा कर चार- चार मंजिलों के फ्लैट बनाए जा रहे हैं । बस गनीमत है कि अभी कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जो मोह से भरे हुए हैं। बहुत अच्छा लगा अपने दूसरे उस मकान में जाकर अपने मकान मालिकों से मिलने का, जहां हम चार साल से ज्यादा समय तक रहे। इतने सालों बाद मुझे देखकर उनके चेहरे जिस तरह से खिले, उसे देखकर लगा, संबंधों में मोह अभी भी बाकी है।

Wednesday, February 22, 2012

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Saturday, August 6, 2011

गुरुदेव और महात्मा

गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर का बेशक महात्मा गांधी जी के साथ राजनीतिक मतभेद था लेकिन फिर भी दोनों में एक दूसरे के प्रति आदर सत्कार और स्नेह भाव था। गुरुदेव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी,इसलिए वह उन कामों में अपनी टांग भी नहीं अड़ाते थे।
गांधी जी ने जब स्वदेशी का नारा देकर सूती कपड़ा कातने और पहनने का आह्वान किया तो उन्होंने इसके लिए गुरुदेव से भी सहयोग मांगा । लेकिन टैगोर का ख्याल था कि चरखा कातने से देश की आर्थिकता सही नहीं हो सकती। गांधी ने अपने राजनीतिक कथाकार शरतचंद्र चैटर्जी को गुरुदेव के पास अपने आंदोलन का समर्थन मांगने के लिए भेजा तो गुरुदेव ने साफ मना कर दिया। इससे गांधी भगत नाराज हो गए। उन्होंने दुकानों से जबरदस्ती विदेशी कपड़े उठाए और गुरुदेव के घर के बरामदे में फेंककर आग लगा दी। गुरुदेव ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्होंने गांधी जी को लिखा, आप शांति के पुजारी हो और यहां आकर देखो आपके शांति दूत पागलों की तरह कपड़ों को आग लगाकर चीखें मार रहे हैं। क्या यही है आपकी शंाति?
विद्यार्थियों के पढ़ाई छोडक़र राजनीतिक आंदोलन में कूदने के मामले में भी दोनों शख्सियतों में काफी मतभेद रहे ।
गुरुदेव ने विद्यार्थियों से कहा, गांधी आपसे कैसा बलिदान मांग रहे हैं? विद्या की बलि? कृपया आप विद्या हासिल करके संपूर्ण मनुष्य बनें ताकि आपको पता चले कि आपकी जिम्मेवारियां क्या हैं? उन्होंने गांधी जी से भी विद्यार्थियों को आंदोलन में शामिल करने के लिए मना करने के लिए पत्र लिखा। जवाबी पत्र में गांधी ने कहा, गुलाम देश में विद्या हासिल करने का कोई लाभ नहीं है। यही नहीं महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में इस विषय पर एक बड़ा लेख भी लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, जब घर में आग लगी हो तो शांत होकर नहीं बैठा जा सकता। इसके जवाब में टैगोर ने कहा, इतिहास के बड़े संकट से जूझते अपने साथियों से कदम मिलाकर यदि नहीं चल सकते तो यह भी न को कि मैं ही ठीक हूं , वे गलत हैं।
दोनों शख्सियतों में तुनक मिजाजी चलती रहती थी। एक बार जब गांधी जी शांति निकेतन में आए और गुरुदेव के साथ रहे। गांधी जी जो तले पदार्थों से परहेज करते थे को पूरियां परोसी गईं। उन्होंने कहा, आपको पता है आप जहर खा रहे हो। गुरुदेव ने हंसते हुए कहा, आधी सदी से खा रहा हूं, अभी तक मरा नहीं, आगे भी कुछ नहीं होगा। इसी बीच सैर पर जाने का फैसला हुआ। गांधी जी ने क्या करना था, अपनी छड़ी उठाई और खड़े हो गए। लेकिन गुरुदेव ने सूट पहना, बूट जुराबें कसीं। शीशे के आगे खड़े होकर ब्रश से दाढ़ी को संवारा और टाई ठीक करने लगे। गांधी से रहा न गया उन्होंने कहा, गुरुदेव ,इस उम्र में इतना समय शीशे के आगे खड़े रहना ठीक नहीं। टैगोर बोले, महात्मा, जानबूझकर बदसूरत दिखाई देना भी तो हिंसक होता है।
दोनों में आपसी प्यार भी बहुत था। जब जाति पाति को आधार बनाकर अंग्रेजों ने अलग अलग चुनाव क्षेत्र बना दिए तो बीस सितंबर 1932 को गांधी ने जेल में रहते अनशन शुरू कर दिया। यह कामयाब हो, इसके लिए उन्होंने सबसे पहले गुरुदेव रविंदरनाथ टैगोर को पत्र लिखा और आशीर्वाद मांगा । पत्र अभी डाक में डाला भी नहीं था कि गुुरुदेव का तार आ गया जिसमें लिखा था, भारत की एकता और अखंडता को कायम रखने के लिए अपना अनमोल जीवन कुर्बान करने का आपका फैसला सही है। आपकी महान तपस्या का सम्मान करते हुए हम प्रेम पूर्वक आपके रास्ते पर चलेेंगे। गुरुदेव का मन तार भेजने से भी शांत नहीं हुआ तो वह चार दिन बाद ही यरवदा जेल पूना में महात्मा से मिलने के लिए रवाना हो गए। खतरा भांपते ही अंग्रेज सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया।


इन्द्रप्रीत सिंह

Wednesday, June 1, 2011

तो क्या ये बीबी बादल को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होती?

हम दोहरी जिंदगी जी रहे हैं। हमारे नेताओं का तो आचरण ही ऐसा हो गया है कि अब कोई भी नेता युवाओं के लिए रोल मॉडल बनकर नहीं उभर रहा। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की पत्नी सुरिंदर कौर बादल की कैंसर से जूझते हुए मृत्यु क्या हुई, इन नेताओं ने अपना दुख जाहिर करने के लिए तमाम अखबारों को इश्तिहारों से भर दिया। 24 मई को सुरिंदर कौर बादल ने पीजीआई में दम तोड़ दिया। वह पिछले तीन चार साल से कैंसर से पीडि़त थीं,परिवार और सरकार ने उन्हें बचाने के लिए करोड़ों रुपए बहाए लेकिन सांसों की डोर छूट गई।
देश भर के नेता,मंत्री, विधायक ,उद्योगपति और आम लोग मुख्यमंत्री के साथ दुख व्यक्त करने के लिए आ रहे हैं। अधिकांश आम लोगों को तो शायद मुख्यमंत्री व उनके बेटे सुखबीर बादल जानते तक नहीं होंगे , ये फेसलैस लोग यदि मुख्यमंत्री के परिवार से सहानुभूति व्यक्त करने आ रहे हैं तो सचमुच उन्हें दुख हुआ होगा। लेकिन जो लोग केवल अखबारों पूरे पूरे पेज इश्तिहार के रूप में देकर अपने आप को सबसे बड़े दुखियों में शुमार कर रहे हैं, मेरी तो उनसे केवल इतनी गुजारिश है कि सुरिंदर कौर बादल पहली ऐसी महिला नहीं हैं जो कैंसर से मरी हैं बल्कि पंजाब में लगभग हर दो दिन बाद ऐसी मौत हो रही है और इनमें बड़ी संख्या उन गरीब मजदूरों की है जिनकी तो इतनी हैसियत ही नहीं है कि वह कैंसर के इलाज के लिए डॉक्टरों को फीस दे सकें, डॉक्टरों द्वारा लिखी हाई ब्रांडेड दवाओं को खरीद कर अपने मरीज को बचाने की कोशिश कर सकें। इसलिए यदि विज्ञापनों पर खर्च किए जाने वाला करोड़ों रुपया पंजाब सरकार और एसजीपीसी द्वारा बनाए गए कैंसर रिलीफ फंड में जमा करवा देते तो शायद बीबी सुरिंदर कौर बादल को यह सच्ची श्रद्धाजंलि होती क्योंकि इस फंड से उन गरीब कैंसर पीडि़तों को भी बचाने की कोशिश हो जाती जो केवल इलाज के अभाव में ही मर रहे हैं।
मेरी एक गुजारिश बादल परिवार से भी है कि उनके परिवार ने कैंसर का दंश झेला है यदि वह चाहें तो बीबी बादल की याद में उसी तरह का कैंसर अस्पताल या रिसर्च इंस्टीट्यूट बना सकते हैं जैसा सुनील दत्त ने अपनी पत्नी नर्सिस दत्त के लिए ,एनटी रामा राव ने अपनी पत्नी बसावा थकरम की याद में और इमरान खान ने अपनी मां सौकत खानम की याद में बनाया है। ये सभी चेरिटेबल अस्पताल हैं जहां गरीब भी अपने मरीजों का इलाज करवा सकते हैं।

Tuesday, October 26, 2010

कश्मीर डायरी

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इंटरनेशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी (आईडीपी ) के राष्ट्रीय प्रधान मास्टर खेता सिंह के नेतृत्व में सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल द्वारा 15 से 17 अक्टूबर तक कश्मीर का दौरा

उद्देश्य - कश्मीर के राजनीतिक माहौल के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी हासिल करना और इससे जुड़े मुख्य पक्षों से बातचीत के आधार पर वर्तमान समस्या के शांतमयी हल की संभावनाओं को तलाशना। आईडीपी का जम्मू में सक्रिय यूनिट है जिसने कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के साथ बैठकों का प्रबंध करने में अहम भूमिका निभाई।
प्रतिनिधिमंडल ने हुर्रियत कांफ्रेंस े चेयरमैन मौलवी मीरवाइज उमर फारूक,हुर्रियत से अलग हुए ग्रुप के चेयरमैन सैय्यद अली गिलानी ,जम्मू कश्मीर लिबरेशन फं्रट (जेकेएलएफ) के चेयरमैन यासीन मलिक,जेके डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के चेयरमैन शब्बीर अहमद शाह (जम्मू जेल में बंद) की पत्नी डॉ बिल्कीस और इसके कार्यकारिणी प्रधान मौलाना मोहम्मद अब्दुला टेहरी साहिब के अलावा श्रीनगर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के प्रधान कमल नैण सिंह से मुलाकात की।
उपरोक्त ग्रुपों से विस्तृत चर्चा और आम आदमी के साथ अंतरक्रिया ने हमें निम्र समझ बनाने में सहायता कीद्ध

संक्षिप्त सार- जम्मू कश्मीर में चीन के बढ़ रहे प्रभाव के कारण मामले को हल करने के लिए भारत का हित दांव पर लगा हुआ है। अमरीका और भारत के संबंध सुधरने के बाद पाकिस्तान ने चीन के रूप में मजबूत साथी ढूंढने का रास्ता तलाश लिया ,जिसने भारत के पड़ोस में मजबूत फौजी आधार तैयार करने के लिए मकबूजा कश्मीर के 37000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। कश्मीर नेता बेशक चीन के तानाशाही रवैये के लंबे समय में पडऩे वाले प्रभाव की असलीयत को महसूस नहीं कर रहे हैं लेकिन उत्साहवर्धक सोच यह है कि वह मसले का हल त्रिपक्षीय वार्ता के जरिए शांतमयी राजनीतिक हल करना चाहते हैं।

मौजूदा स्थिति- हाल ही में संसद के सर्व दलीय प्रतिनिधिमंडल का श्रीनगर का दौरा करने से कश्मीरी नेताओं को शांतमयी हल तलाशने की उम्मीद बनी थी लेकिन क जम्मू कश्मीर समस्या के शांतमयी राजनीतिक हल के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की अपील करने के बावजूद सरकार ने गैर राजनीतिक माहिरों की तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया जो विवादित मुद्दे का अध्ययन करेगा। कश्मीरी नेता इसे उत्साही संकेत नहीं मानते और भारत सरकार को विश्वास बहाल करने के लिए राजनीतिक व्यक्तियों को इस प्रक्रिया में शामिल करना चाहिए।

संभावी हल -आईडीपी भी यह महसूस करती है कि मसले का हल पाकिस्तान को बातचीत में शामिल किए बिना संभव नहीं है क्योंकि वह भी त्रिपक्षों में बड़ा पक्ष है। इसी तरह अमरिका भी त्रिपक्षीय बातचीत से पीछे रहकर भ मसले को सुलझाने में मदद कर सकता है, क्योंकि वह चीन के प्रभाव को खत्म करना चाहेगा। आईडीपी मजबूती के साथ महसूस करती है कि अलगावादी नेताओं को निरंतर कमश्ीर से बाहर भारत के अन्य हिस्सों में भी जाना चाहिए और लोगों के साथ अंतरक्रिया में पडऩा चाहिए ताकि दोनों पक्ष एक दूसरे के नजरिए से परिचित हो सकें। कश्मीरी नेताओं ने भी इस प्रस्ताव का स्वागत किया है और अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबाला के भारत दौरे के बाद देश में आयोजित किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने की स्वीकृति दी है।

गोली मसले का हल नहीं- आईडीपी के साथ चर्चा के दौरान कश्मीरी नेता इस बात पर सहमत थे कि गोली से भविष्य में परिणाम हासिल करना संभव नहीं है। लेकिन कश्मीर के मोहल्लों में हर रोज हो रह उग्र प्रदर्शनों के बारे में वह क्या सोचते हैं? सैय्य अली शाह गिलानी के अलावा अन्य लगभग सभी कश्मीरी नेता गिलानी द्वारा जारी कैलेंडर को जारी करना सही नहीं समझते लेकिन वे खुले तौर पर इसका विरोध नहीं करते क्योंकि वह आंदोलन में फूट को दर्शना नहीं चाहते। उनकी इस खामोशी को लोग कैलेंडर को समर्थन मानते हैं और लोग भी इसको समर्थन दे रहे हैं। कश्मीरी सार्वजनिक तौर पर बेशक आंदोलनकारी पहुंच को समर्थन देते हों लेकिन व लगातार हो रहे बंद और हड़तालों के खिलाफ हैं जो निरंतर उनकी रोटी को छीन रही हैं। एक अनुमान के अनुसार कश्मीर में लगभग 45 हजार लोग बेरोजगार हो गए हैं। लाल चौक में एक चार मंजिले बड़े होटल जहांगीर (जिसमें प्रतिनिधमंडल ठहरा था) आम तौर पर सौ से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे लेकिन अब केवल तीन चार कर्मचारी ही रह गए हैं क्योंकि बिगड़े हालातों के कारण पर्यटक नहीं जा रहे हैं।

युवाओं की शमूलियत- इन दिनों कश्मीरी नौजवानों के आंदोलन में कूदने से भारत की चिंता बढ़ गई है,लेकिन कश्मीरी नेताओं का दावा है कि यह कश्मीरियों की चौथी पीढ़ी का गुस्सा है क्योंकि वह भी स्वाभिमान से जीना चाहते हैं। यह उनके लिए बेरोजगारी की समस्या नहीं बल्कि पहचान, स्वाभिमान और राजनीतिक स्वतंत्रता का मसला है। आईडीपी का मानना है कि भारत को तुरंत गंभीरता दिखाने की जरूरत है अन्यथा मामला हाथों से निकल भी सकता है।

पाकिस्तान या आजादी-अलगाववादी नेताओं में आम सहमति है कि जम्मू और लद्दाख पूरे जम्मू कश्मीर राज्य का हिस्सा रहने चाहिए। इन ग्रुपों में पाकिस्तान के साथ जाने की कोई बड़ी भावना नहीं है जबकि वह भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर को एक बफ्फर स्टेट बनाना चाहते हैं। यदि भारत राजनीतिक हल चाहता है तो बातचीत शुरू करने से पहले अलगाववादी नेताओं का भी नुक्ता स्वीकार करना चाहिए। इसके शुरूआती रूप में कश्मीर को जबरदस्ती भारत का अटूट अंग कहने के बजाए इस मुद्दे को विवादित मानना चाहिए। विभिन्न समय से लगातार 23-24 साल से जेल में बंद शब्बीर शाह और उस जैसे राजनीतिक कैदियों की रिहाई विश्वास वाला माहौल बनाने में सहायता कर सकती है।

रिपोर्ट जारीकर्ता


करनैल सिंह जखेपल
महासचिव प्रांतीय कमेटी पंजाब।
संपर्क- 9417485060,9436227256

मेल -द्बस्रश्च.ह्यह्लह्वस्रद्बद्गह्यञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व

Sunday, June 20, 2010

yes more than a slap on the wrist

This is in reference to the “Counterpoint, Sunday Hindustan Times, June 20, 2010, by Vir Sanghvi”, where he concludes that the ‘corporal punishment’ meted out to the school students by teachers is an indicator to the fact how a schools see itself.

Not only Mr. Sanghvi shows undesired arrogance but also uses derogatory adjectives for the Teachers (sadist, perverts, maniacs…) besides dubbing them as strangers. He doubts the capability and fidelity of the Teachers to award fair punishment to the children but also remarks that the modern developed societies have dumped the practice of ‘corporal punishment’ implying that the use of the same in India amounts to taking back the country to stone-age.

His bias against the Teachers is conspicuous when he writes, ‘...it exists (corporal punishment in village schools) because of poor calibre of the Teachers.’ How and when Mr. Sanghvi measured the calibre of the village school Teachers before making this sweeping statement? He goes on to say, ‘…in elite schools, it (corporal punishment) continues because such schools believe that they can do what they like to our children’, as if people weren’t sending children to schools to learn wisdom but to taverns, brothels, pubs or casinos to learn whatever is to be learnt from such places.

Education is modification of behaviour and if we want our children’s behaviour to be modified in a systematic and controlled manner, there is no better institution than a school, where a child is under the trained and caring eyes of the teachers. As the Teachers are going to be held responsible for the behaviour and academic achievements of our children, certain responsibilities have been entrusted to the Teachers. And with responsibilities, are attached some powers to let the execution of these responsibilities possible. Our efforts should be directed towards keeping a check on the misuse of the authorities and not to command the Teaches and telling them which and what authority they should use at what time.

Of late the term ‘corporal punishment’ has been used in such a way that it has started giving an impression as if Teachers were using third degree torture to extract some particular traits of behaviour from students. True that excessive and reckless use of physical punishment would only demoralise students but think what would happen when the students are sure that the hands of the Teachers are tied and they can’t do anything against the erring students. Wouldn’t that lead to a chaos in the entire educational atmosphere?
By writing all this I do not intend to attest ‘corporal punishment’ but just want to show that simple physical-punishment meted out to the school children is not used as a singular tool by the Teachers. From psychological handling to simple do’s and don’ts, fines, remarks in note-books/diaries and discussions with parents in the Parent-Teacher-Association meetings there are numerous such tools which are more commonly used to modify the student’s behaviour. And yes, physical punishment is also one of these tools.

Being a Teacher I have no sympathy for those of my fellows elsewhere who resort to physical punishment just to vent out their frustration, or those who think of this as the best resort to discipline the children. They need to be counselled for their behaviour and the pressures, if any, on them which leads to such behaviour should be removed first.

As an example, in state run schools of Punjab, the Teachers Annual Confidential Reports (ACRs) are adjudged on the basis of the pass percentage of the students in the respective board exams. Thus every student failing in the board exam would lead to downgrading of the Teacher’s ACR and the teachers resort to all sorts of means to get the students pass in board exams. The ‘honest ones’ use text-books all through the year and switch over to help-books during exams to quick-fix the shortcomings, the daring one resort to cheating during the exams and the entrepreneurs even trace the examiners who correct the answer copies of their students and settle a deal.

All this because the Teachers are to be judged by the students’ performance, even as they (the Teachers) should be held accountable for only their own inputs to the students and not by the output delivered by the students, which depends on multiple factors.

We share the deep sorrow felt by the family of the deceased Kolkata student and offer our sympathies but advise our friends in the media that the school should not be made a scapegoat in case one fails to reasonably comprehend the reason of death of a student by suicide. A suicide by a student, or for that matter, any common man, is not a single dimensional situation and is not easy to comment on except on a case-to-case basis. Did the deceased have a good and supporting family or he belonged to ‘richies’ who can buy all the worlds watches for kids but have no free time for them? Was he a very shy and sensitive person or was his ego hurt to such an extent that he felt helpless and took the extreme step?

Such questions would not only add to the pain and agony of the family which has lost their beloved but also lead to unnecessary scrutiny of their family life. Let’s pray to God to grant the strength to the family enabling them to endure this pain and to grant wisdom to a section of columnists, who have 500 square centimeters of space every Sunday to fill by whatever they can write.

The only agreeable thought shared by Mr. Sanghvi this time is that, ‘a middle class that is growing faster than the available educational opportunities. If we don’t open more good schools in our cities…’.

Yes, we do need a large of good educational schools, steered away from Colonialism, denominational schools and the ones which are run in the name of Lord in the most questionable means. Hope Mr. Kapil Sibbal and a large number of great Indian entrepreneurs are listing the footsteps of time to take the tide on its rise...

Pushpesh Kumar has sent to me

Wednesday, January 6, 2010

कैद का लुत्फ

फिल्म देखने का अंदाज भी कितना बदल गया है। माल्स में बने सिनेमा हाल को देखकर यही अंदाजा नहीं होता कि हम फिल्म देखने आए हैं कि मॉल। एक ही इमारत में चार चार सिल्वर स्क्रीन। शानदार हॉल। कोई बालकनी नहीं कोई बाक्स नहीं । वातानुकूलित हाल में आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर फिल्म का मजा लेते लोग। ये नजारा बड़े महानगरों में ही नहीं बल्कि बठिंडा और जीरकपुर जैसे मध्यम दर्जे के शहरों में भी देखने को अब आम मिल जाता है। सब कुछ लगजरी। सौ रुपए में मकई के दानों के साथ मिलने वाली कॉफी या कोक अब लोगों को महंगे नहीं लगते। कभी- कभी लगता है कि हम ये केवल दूसरों को दिखाने के लिए खरीदते हैं। यानी अगर फिल्म के इंटरवेल में ये सब न खरीदा तो कहीं हमारी शान न कम हो जाए।
इन मॉल्स में आकर बकवास फिल्म भी अपना ही नजारा देने लगती है। सिल्वर स्क्रीन तक ले जाने वाली इलेक्ट्रिक सीढिय़ां शुरू -शुरू में किसी को किसी हउए से कम नहीं लगतीं लेकिन एक बार डर खुल जाने के बाद यही सीढिय़ां किसी बढिया पर्यटन स्थल की तरह लगने लगती हैं।
बठिंडा शहर में पहली बार इस तरह के खुले बिग सिनेमा में फिल्म थ्री इडियट्स देखकर यह आभास हुआ कि माल्स में लोग केवल फिल्म देखने नहीं जाते। फिल्म के बहाने वह उन महानगरों की माया को भी देखते हैं जो आम लोगों के पैसे को केवल कुछ ही हाथों में केंद्रित कर रही है।
कई साल पहले तक जब टीवी पर चैनलों का प्रचलन इतना ज्यादा नहीं था, छोटे शहरों में मनोरंजन का साधन केवल इक्का -दुक्का सिनेमा घर ही हुआ करते थे। मेरे शहर धूरी में मात्र ही सिनेमा घर था। बड़े शहरों में जब फिल्में घिस- पिट जातीं तब कहीं महीनों -सालों बाद धूरी जैसे छोटे शहरों के सिनेमा हाल तक पहुंचतीं। कभी कभार हिट फिल्म को देखने की तो छोटे कस्बों में इतनी होड़ मच जाती कि फिल्म देखना भी एक तीन घंटे की कैद से कम नहीं होता था।
एक बार धूरी के सिनेमा घर में हम शोले फिल्म देखने चले गए। जून की गर्मियों में छुट्टियों की वजह से फिल्म देखने वालों की भीड़ काफी ज्यादा थी। तब 12 बज से पहला शो शुरू होता था। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि टिकट लेने में ही हमारे पसीने छूट गए। तब अब की तरह टिकटों के नंबर नहीं होते थे। फस्र्ट कम फस्र्ट था। पहले हॉल में घुसने वालों की इच्छा होती थी कि उस सीट पर बैठा जाए जिसके पास पंखों की हवा आए और सीट भी टूटी न हो। लकड़ी की कुर्सियों वाली सीटों में खासियत केवल इतनी थी कि उस पर बैठने वाली सीट में स्पिं्रग लगे होते थे जो उठते ही सीट कुर्सी के पीठ वाले हिस्से पर लग जाती।
ज्यों -ज्यों हाल भरता गया, गर्मी भी बढऩे लगी। बड़े- बड़े पंखों से धीमे -धीमे आती हवा और मद्यम पढऩे लगी। हॉल पूरा भर चुका था लेकिन तब हाउस फुल का बोर्ड लगाने का जमाना नहीं था। सीटें भर जाती तो लोग खाली जगहों पर ही और कुर्सियां लगाकर बैठ जाते लेकिन जब अतिरिक्त कुर्सियां भी भर जाती तो जमीन पर बैठकर ही फिल्म देखते। फिल्म शुरू होने से पहले ही अपने -अपने हीरो की हीरोगीरी के कसीदे पढऩा शुरू कर देते। फिल्म शुरू हुई अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि आधे से ज्यादा हाल की कमीजें उतर गईं। गर्मी और सफोकेशन के कारण आ रहा पसीना रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। जिन लोगों ने पगडिय़ां बांधी हुई थी गर्मी के कारण उन्होंने वह भी उतारकर अपने बगलों में दबा लीं। वह पसीना पोंछने के भी काम आ रही थीं। अभी गब्बर सिंह डायलॉग भी शुरू नहीं हुए थे कि लोगों ने अपनी अपनी बनियानें भी उतार लीं। फिल्म में धमेंद्र और हेमामालिनी की तुनकमिजाजी अभी चल ही रही थी कि तभी लाइट चली गई। लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। हाल के दरवाजे खुल गए। हम सभी तपती धूप में बाहर आ गए। लेकिन वाह! वह धूप में बदन पर कितनी ठंडी लग रही थी। हाल से पसीने से तर बतर निकलते हुए मानो लग रहा था कि एक घंटे की कैद से छूट रहे हों। कुछ लघु शंका का निवारण करने चले गए तो कुछ ने बंटे वाली सोडे की बोतलों में बर्फ डलवाकर राहत लेने की सोची। लेकिन मात्र दस मिनट में जनरेटर चल पड़ा और हम फिर से लगभग भागते हुए अपनी अपनी सीटों की ओर लपके। जिन लोगों की सीटें रुक गई थीं वह उनकी सीटों पर कब्जा करने वालों से लडऩे लगे। कैद फिर से शुरू हो गई। शायद ये पहली ऐसी कैद थी जिसका कैदी लुत्फ ले रहे थे।