Friday, October 7, 2022
36 साल बाद कानपुर वापिस आकर......
होता घर तो होता लौटना भी,
क्या करे पंछी 'अवध' की शाम लेकर...
36 साल बाद कानपुर वापिस आकर......
यह शे'अर के उर्दू प्रसिद्ध शायर सरदार पंछी ने उस समय लिखा जब 1984 के दंगों के कई सालों बाद वह अपने शहर रायबरेली वापस गए। पंछी जी बताते है कि अवध के घने-घने पेड़ों पर शाम का नजारा देखने लायक होता है। हजारों की तादाद में पक्षियों की चहचहाहट से पूरा इलाका गूंज रहा होता है। दूर-दूर से लोग इस नजारे को देखने के लिए आते हैं। सुबह होते ही यह पक्षी खाने की तलाश में दूरदराज के इलाकों में चले जाते हैं और शाम को लौट आते हैं। वे इसलिए लौटते हैं क्योंकि घने पेड़ों पर उनके घर हैं । लेकिन मैं कैसे लौटूं, मेरा तो घर ही दंगों की आग में झुलस गया।
लगभग ऐसी ही हालत आज मेरी थी, जब 36 साल बाद मैं उन गलियों, मोहल्लों ,बाज़ारो में घूमा,जहाँ कभी बचपन बीता था, उन स्कूलों में गया, जिनके बैंच पर बैठकर सहपाठियों के साथ शरारतें करता रहा।
आज कुछ भी वैसा नहीं है सब कुछ बदल गया है। खुली-खुली सड़कें अब तंग गलियों में बदल गई हैं। हर तरफ दुकानें ही दुकानें ,लगता ही नहीं कि यह वही शहर है जहां पैदल-पैदल हम कितनी कितनी दूर निकल जाया करते थे। खुले मैदान, आज कंक्रीट के जंगलों में बदल गए हैं। जहां ऊंची ऊंची इमारतें आसमानों को छूने की कोशिश करती दिखाई पड़ रही हैं।
कभी शहर की शान हुआ करता था नटराज टॉकीज, आज एक बड़े मॉल में बदल रहा है। शायद मेरे से अगली पीढ़ी को तो यह भी नहीं पता चलेगा कि यहां कभी नटराज टॉकीज था। कितनी फिल्में यहां देखीं, मुझे खुद भी याद नहीं। कभी कभी एक पुराना टिकट उठाकर फिल्म के इंटरवेल में सिनेमा के अंदर घुस जाना और जब फिल्म देखकर बाहर आना तो लगना कि बहुत बड़ी जंग जीत ली।
वक्त कितनी जल्दी चीजों को बदल देता है। यह आज इस शहर में आकर मुझे पता चला। इच्छा हुई कि अपना स्कूल देखकर आउं। गोबिंद नगर के बसंत शिक्षा निकेतन जहां मैं पढ़ा करता था। वहां जाकर देखा, स्कूल तो है पर बसंत शिक्षा निकेतन नाम का कोई स्कूल नहीं है। पूछने पर पता चला बसंत शिक्षा निकेतन का नाम सिर्फ इसलिए बदल दिया गया है क्योंकि अब मां बाप अपने बच्चों को कॉन्वेंट में पढ़ाना चाहते हैं और वह भी अंग्रेजी मीडियम में। मेरे जैसे साढे़ तीन दशक पहले पढ़ने वाले बच्चे को अपना स्कूल ,अपनी क्लास देखने की इजाजत भी नहीं मिली क्योंकि कान्वेंट स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा का ख्याल कुछ ज्यादा ही रखना पड़ता है । प्रिंसिपल ने कहा, वह मुझे अंदर क्लास में जाने नहीं दे सकती। बच्चों के पेरेंटस ऐतराज करते हैं। मन निराशा से भर गया। इन साढे तीन दशकों में सभी पुरानी टीचर्स अब रिटायर हो चुकी हैं । नौकरी से भी और कई तो जिंदगी से भी ।
इतने सालों बाद कानपुर आने का मकसद भी सिर्फ यही था कि जिस ताई जी के आंगन में खेला कूदा करते थे आज वह भी नहीं रहीं। उनके भोग में शामिल होने के लिए कानपुर आया था। लगता है इस शहर से जुड़ी कुछ तंदें भी कुछ सालों बाद टूट जाएंगी। पहले ही हम रिश्तों की उस पायदान पर पहुंच चुके हैं, जहां बच्चे अकेला रहना ही पसंद करते हैं। उन्हें नातों से कोई मतलब नहीं । सब रिश्ते वैसे ही सिमटते जा रहे हैं।
1979 में जब हम इस शहर में बसने के लिए आए थे। तब सबसे पहले जिस मकान में रहे आज उसकी दीवारों को गिरा कर चार- चार मंजिलों के फ्लैट बनाए जा रहे हैं । बस गनीमत है कि अभी कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जो मोह से भरे हुए हैं। बहुत अच्छा लगा अपने दूसरे उस मकान में जाकर अपने मकान मालिकों से मिलने का, जहां हम चार साल से ज्यादा समय तक रहे। इतने सालों बाद मुझे देखकर उनके चेहरे जिस तरह से खिले, उसे देखकर लगा, संबंधों में मोह अभी भी बाकी है।
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