Monday, November 2, 2009

पपी क्यों नहीं पाल

'पापा, हम एक पपी (पिल्ला) क्यों नहीं पाल लेते।Ó मेरे छह साल के बेटे जसकंवल ने कल मुझसे यह सवाल किया। वह अपने घर की खिडक़ी से बाहर पड़ोस के दो छोटी बच्चियों को अपने कुत्ते टाइगर के साथ खेलते देख रहा था।
'नहीं बेटा हम किराये के मकान में रहते हैं, जब अपना घर बनाएंगे तो पाल लेंगे।Ó
'तब तक मैं फिर किससे खेलूं, मेरा तो कोई ब्रदर और सिस्टर भी नहीं है।Ó
जसकंवल का पहला सवाल तो मुझे कुछ साधारण सा लगा लेकिन अब दूसरे सवाल ने तो उसके अकेलेपन की चोट सीधी मेरे मन पर की।। चंडीगढ़ जैसे शहर में नौकरी करने वाला कोई व्यक्ति किराये पर रहकर एक से ज्यादा बच्चों को कांवेंट स्कूल में पढ़ाने के बारे में क्या सोचा जा सकता है? शायद नहीं, इसलिए हमने कभी दूसरे बच्चे के बारे में नहीं सोचा। लेकिन हमारी ये योजनाएं छोटे बच्चों को किस तरह अकेला कर देती हैं इसका अहसास मुझे जसकंवल के कोमल मन से निकले सवाल से हुआ।
बढ़ती आबादी को नियंत्रण करने की सरकारी योजनाओं और महंगाई ने मिलकर बच्चों को अकेला कर दिया है। सच भी तो है। हम तीन भाई बहन हैं। बचपन में कभी लगा ही नहीं कि दोस्तों की जरूरत है। हम घर पर ही एक दूसरे के साथ खेल लेते थे। उन दिनों दूरदर्शन पर परिवार नियोजन के विज्ञापनों में अक्सर छोटा परिवार रखने की सलाह दी जाती। विज्ञापन के साथ दो बेटों और एक बेटी को अपने माता- पिता के साथ खड़ा दिखाया जाता 'छोटा परिवार -सुखी परिवारÓ जब कुछ बड़े हुए तो इसी विज्ञापन से एक बेटा गायब हो गया । अब 'हम दो हमारे दो Ó के विज्ञापन आने शुरू हो गए। लेकिन आज जब जवान हुए तो एक दिन उसी विज्ञापन पर निगाह गई। विज्ञापन से एक बेटा और गायब हो गया। माता पिता के साथ केवल एक बेटी ही रह गई। बेटी की जगह बेटा भी हो सकता था लेकिन ऐसा करना भ्रूण हत्या जैसे कलंक को और बढ़ावा देने जैसा होता।
मेरी माता की भी अक्सर मुझसे यह शिकायत होती,' बेटा एक बच्चा तो घर में और होना चाहिए। तुम्हारे, जसकंवल के तो चाचा, बुआ जैसे रिश्तेदार हैं इसके बच्चे किसे चाचा और बुआ कहेंगे। एक बच्चे अकेला-अकेला महसूस करता है।Ó मैं हर बार उनकी बात यह कहते हुए टाल देता, 'चलो सोचते हैं।Ó
कई बार सोचा भी एक बेटी हो तो परिवार पूरा हो जाए लेकिन जसकंवल की पढ़ाई, घर के बढ़ते किराये और महंगी होती अन्य चीजों ने कभी इस सोच के बीज को अंकुरित होने नहीं दिया। आसपास अपने दोस्तों मित्रों को देखता हूं तो ज्यादातर उनमें ऐसे ही हैं जिन सभी के घर में एक ही बेटा या बेटी है। अक्सर उनसे बात भी होती है। उनकी सोच भी मेरे जैसी ही है। 'कहां यार एक के ही खर्चे पूरे हो जाएं वही बहुत है। इतनी महंगाई में इनकी ही परवरिश हो जाए , बहुत है।Ó
लगता है स्कूल की बढ़ती फीसें, घर के किराये और महंगाई बच्चों के सभी रिश्तों को खत्म कर देंगी। उन्हें खेलने के लिए पपी ही लेकर देने पड़ेंगे।


इन्द्रप्रीत सिंह

1 comment:

Ajay Bhardwaj said...

life is not just hisaab-kitaab....it was a great feeling that crossed your heart and the way you shared it...but please try getting out of the mathematics of life..get into its geometry and painting..it would be far too fabulous, I guess !!!