Wednesday, November 11, 2009

रोजी-रोटी

रजिंदर और मेरी जिंदगी में काफी समानता है। हम दोनों के परिवार रोजी-रोटी के लिए अपने-अपने पैतृक शहरों को छोडक़र पराए लोगों के बीच चले गए। मेरे परिवार ने जहां सत्तर के दशक में अपनी जन्मभूमि धूरी को छोडक़र कानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं रजिंदर के पिता कानपुर के गांव झींझक को छोडक़र धूरी शूगर मिल में नौकरी करने के लिए आ बसे। लेकिन वक्त ने दोनों को धोखा दिया। दोनों परिवार सालों की मेहनत के बाद बसे बसाए कारोबार को छोडक़र फिर से सुरक्षा की तलाश में जन्म भूमि की ओर चल दिए।
अक्टूबर 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कत्ल के बाद तीन दिन और रातें मेरे परिवार ने किस तरह बिताईं, उसकी याद आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर उसी तरह ताजा है जैसे कल की बात हो। बसे बसाए कारोबार को उखाडक़र नई जमीन पर लगाना कितना मुश्किल होता है, इसका अहसास शायद उन लोगों को न हो जिनके परिवारों को इस तरह उजडक़र कहीं जाना न पड़ा हो। पूरी एक पीढ़ी बीत जाती है वही मुकाम हासिल करने में।
परिवार के सभी जन मिलकर मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से कर पाते । सरकारी स्कूलों तक में बच्चों की पढ़ाई जारी रख पाना उनके बस की बात नहीं होती थी। 31 अक्टूबर और एक नवंबर की रातों के दंगों ने किस प्रकार हजारों परिवारों सडक़ पर ला दिया, बेशक ये अब इतिहास की बातें हो गई हों लेकिन जब भी अक्टूबर का महीना आता है पुराने घावों से मवाद फिर से रिसने लगता है।
रजिंदर और मैं अक्सर एक साथ कानपुर की बातें करते। छुट्टियों में धूरी से कानपुर में अपने गांव झींझक जाता । हर मंगलवार को गांव से कानपुर में पनकी में हनुमान के मंदिर उसका परिवार जाता। हम भी कई बार उस मंदिर में जा चुके थे। कानपुर की बातें ही दरअसल हमारे निकट आने का कारण थीं। चूंकि वह जन्मा और पला बढ़ा ही धूरी में था इसलिए कभी लगता ही नहीं था कि वह पंजाबी नहीं है।
कानपुर से आकर हमने अपना कारोबार फिर से जमाना शुरू किया । लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिली। पंजाब में जल रही आतंकवाद की आग भी इसका कारण थी। इसी क्रम में लगातार दो बड़ी घटनाओं ने पूरे पंजाब को हिलाकर रख दिया। जगराओं के पास रेलगाड़ी में कई लोगों को आतंकियों ने गोलियों से भून दिया। रजिंदर का परिवार काफी सहम गया। लेकिन भवानीगढ़ के पास जब एक धागा मिल में यूपी से मजदूरों को मारा गया तो रजिंदर के परिवार का भरोसा यहां से पूरी तरह से उठ गया। उन्होंने पंजाब को छोडऩे का फैसला कर लिया। मैंने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा तो रजिंदर ने कहा जैसे तुम कानपुर छोडक़र अपने शहर आ गए अब मैं तुम्हारे शहर को छोडक़र अपने गांव जा रहा हूं। उसका मतलब झींझक से था। भगवानपुरा शूगर मिल को रजिंदर के परिवार सहित दर्जनों परिवार चले गए। कुछ समय तक तो उससे खतो-किताबत चलती रही लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गई।
मिलों में अपने लोगों (पंजाबियों)को नौकरियां दिलाने के लिए आतंकियों ने जो खूनी कार्रवाइयां की उससे सहमे भगवानपुर शूगर मिलों में काम करने वाले कई परिवार भी पलायन कर गए लेकिन अब धूरी की भगवानपुरा शूगर मिल को यूपी के बाहुबली नेता डीपी यादव ने खरीद रखा है।

3 comments:

Udan Tashtari said...

अजब लगा सुन कर.

Manvinder said...

aapka paryaas achcha hai...naye bolg ki badhaaee

Kulwant Happy said...

आतंकवाद का कोई भी समय हो। हर समय घातक होता है। उसका दंश हरेक शख्स झेलता है।

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