Friday, July 24, 2009

हम पिकनिक मनाने नहीं आए?

क्या हम यहां पिकनिक मनाने आए हैं , लगभग चीखते हुए पसीने से तर किसान शिंगारा सिंह ने कहा। उसकी आवाज इतनी जोरदार थी कि अंग्रेजी अखबार की 22-23 साल की पत्रकार कामिनी के पसीने छूट गए। हड़बड़ाती हुई वह पीछे हटी, नहीं .. मेरा मतलब ..।
क्या है तुम्हारा मतलब , कभी हमारी भी परेशानी अपनी खबर में लिखने की कोशिश की है। बरसों से हम चीख चीख कर बताने की जो कोशिश कर रहे हैं। आज शहर वालों को जरा सी तकलीफ क्या हुई, गिद्दों की तरह हमारे इर्द इक_े हो गए। जाओ भाग जाओ यहां से .. कुछ नहीं बताना हमें किसी को , हमें पता तुम शहरियों को कौन सी भाषा समझ में आती है। जेठूके गांव का शिंगारा अभी भी लगातार बोलता जा रहा था।
दरअसल भारतीय किसान यूनियन के किसानों ने चंडीगढ़ के 16-17 सेक्टर के चौंक पर धरना दे दिया। तमाम अंग्रेजी और हिंदी अखबार के पत्रकारों को इस धरने से शहरवासियों को हो रही परेशानी की चिंता थी। सो फोटोग्राफर जहां उस एंगल से फोटो खींच रहे थे तो पत्रकार किसानों से बता रहे थे कि उनके धरने से शहर वासियों को कितने परेशान हो रहे हैं। कोई दफ्तर को जाने में लेट हो रहा है तो किसी को जरूरी शॉपिंग के लिए सेक्टर 17 की मार्किट में जाना था।
मेरा तो बस नहीं चलता, पता नहीं हमारे इन बेवकूफ किसानों को कब अक्ल आएगी? मैं तो कहता हूं,बंद करो खेतों में अनाज उगाना। कर्जाई तो पहले से हैं, कुछ और चढ़ जाएगा, क्या फर्क पड़ता है। एक बंूद दूध की शहरों में मत भेजो , पीने दो सालों को डिब्बे वाला दूध। शिंगारा सिंह की गर्मी भरी बातें सुनकर कुछ और किसान नेता भी आगे आ गए।
अच्छा आपकी मांगें क्या हैं? शिंगारा सिंह को ठंडा करने के इरादे से एक हिंदी अखबार के युवा पत्रकार ने कहा।
कोई ज्यादा बड़ी मांग नहीं है हमारी, हम चाहते हैं कि जैसे तुम लोगों को सूचकांक के हिसाब से तनख्वाह मिलती है ऐसे ही हमारी फसल का दाम हमें मिले। भाकियू के प्रधान ने अपनी मांग बताई।
इससे तो महंगाई बढ़ जाएगी, आटा बीस रुपए किलो हो जाएगा
तो क्या हमने तुम्हें पालने का ठेका ले रखा है? बीस- बीस रुपए के कोल्ड डिं्र्रक घटक जाते हो तब महंगाई की ऊंचाई का पता नहीं चलता। तुम्हारी ये दो सौ रुपए वाली जींस तीन सालों में दो हजार की हो गई है क्या तुमने पहननी छोड़ दी। शिंगारे का गुस्सा ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
शिंगारा सिंह का बिफरना जायज था आखिर किसान कब तक अपनी छोटी- बड़ी मांगों के लिए सरकारों का मुंह ताकता रहे। देश वासियों को पेट भरने के लिए उसका बाल-बाल कर्जाई हो चुका है। शहरियों के बच्चे कान्वेंट में पढ़-पढक़र इंजीनियर डॉक्टर बनते जा रहे हंै जबकि किसानों के बच्चे उन सरकारी स्कूलों तक में नहीं जा पा रहे हैं जहां तीन- तीन सौ बच्चों को पढ़ाने वाला केवल एक अध्यापक है।
कोई किसान मीलों चलकर यहां अपनी मर्जी से नहीं आता, मजबूरी में आता है । जब पानी सिर से ऊंचा हो जाता है तब आता है। अखबार में लिखना है तो किसानों का दर्द लिखो जिनकी वजह से रोटी खाते हो और इतना समझ लो जिस दिन किसान समझ गया न .. उस दिन तुम्हारे अखबारों की हैड लाइन में केवल किसान ही होंगे.. तुम्हारे अंबानियों की रोजाना बढऩे वाली तनख्वाहों के ब्यौरे नहीं।

2 comments:

Megha Mann said...

tooo good. I wish we awaken to the sufferings of farmers and their families.

Let the flour be 20 rupees kg and then only govt will rise from its slumber

Anonymous said...

thanks megha , i think this is happing so early, only wait for some time, this peice is published of coming press club magzine