Wednesday, July 29, 2009

जनता कॉलोनी

जनता कॉलोनी

जनता कॉलोनी आज फिर अखबारों की सुर्खियों में थी। वजह भी खास थी। भारी मुशक्कत के बाद आखिर जिला प्रशासन 11 एकड़ जमीन पर 35 वर्ष से कब्जा किए बैठे झोंपड़पट्टी वालों को हटाने में कामयाब रहा। अब यहां मल्टीनैशनल कम्पनी मल्टीप्लेक्स या मॉल बनाएगी। शहरों में अब जमीन है भी कहां? और जो है उस पर इन झोंपड़ पट्टी वालों ने कब्जा कर रखा है। जिला प्रशासन के अधिकारी सैकड़ों लोगों को घर से बेघर करके फूले नहीं समा रहे। फूले भी क्यों न समाएं आखिर उनकी एक साल की मेहनत आज रंग लाई थी।
अखबारों में आज दूसरी बार स्वर्ण सिंह के फोटो छपे थे। पहले उस दिन छपे, जब छह महीने पहले प्रशासन ने दिसम्बर की हाड कांपती सर्द हवाओं के बीच इन झोंपडिय़ों को तोडऩे के लिए बुलडोजर चलाने के आदेश दिए। स्वर्ण सिंह उस ठेकेदार के बुलडोजर का ड्राइवर था जिसने इन झोंपडिय़ों को गिराने की शुरूआत करनी थी। उधर प्रशाासन के इस रवैये के खिलाफ झोंपड़पट्टी वालों में व्यापक रोष था। 35 साल पहले अपने बेटे के साथ राजस्थान के कबाइयली इलाके से यहां मजदूरी करने कुछ लोगों के साथ बुजुर्ग रमाबाई पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की मिन्नतें कर रही थी,
भगवान के लिए कुछ दिन और ठहर जाओ..ऐ साहब रोक दे न इन्हें,मैं कहां अपने इन नन्हें बच्चों को ले जाऊंगी,गोद में दो साल के अपने पोते को उठाए रमा गुहार लगा रही थी। दो साल के इस नन्हे मुन्ने पर पिछले 15 दिनों में यह दूसरी मार पड़ रही थी। जन्म देते ही मां गुजर गई और 15 दिन पहले शहर की एक ऊंची इमारत पर मजदूरी कर रहा इसका बाप गोपाल भी गिरकर अपनी पत्नी के पास चला गया और अब इसकी घर से बेघर होने की बारी थी। रमा की गुहार का पुलिस और प्रशासन के कर्मियों पर कोई असर नहीं था।
ऐ बता न कहां जाऊंगी इतनी ठंड , थोड़े दिन ठहर जा ,मैं खुद ही चली जाऊंगी। रमा को आगे आया देखकर कुछ और लोग भी अपनी फरियाद लेकर आ गए।
कितनी बार तो तुम लोगों से कह चुके हैं कि यह जगह सरकारी है इसे खाली कर दो तब तो सुन नहीं रहे थे ,ये तो तुम्हारे रोज के बहाने हैं।
नहीं ये बहाना नहीं है साहब हम सच कह रहे हैं, हम चले जाएंगे। बेघर होने के डर से चार पांच छोटे बच्चे भी अपने आप को एक पतली सी चद्दर में लपेट कर आगे आए।
ऐ चलो यहां से, क्या तमाशा लगा रखा है,बड़ा अधिकारी बच्चों पर झपटा। बुलडोजर वाला कहां है?
यहां हूं साहब,स्वर्ण सिंह ठंड से जुड़ चुके हाथों को मलता हुआ आगे आ गया।
क्या कर रहे हो तुम, अपना काम क्यों शुरू करते । बड़े साहब की एक और कडक़ आवाज।
पर साहब ये बच्चे!
क्या बच्चे.. ..
नहीं मेरा मतलब ये कहां जाएंगे साहब इतनी ठंड में ,कुछ दिन और रुक जाते हैं। सर्दी और प्रशासन से लड़ रहे गरीबों को देखकर स्वर्ण सिंह का भी हौंसला उनके मकानों को तोडऩे का नहीं बन रहा था।
अब मुझे तुम बताओगे,मुझे कब क्या करना है,साहब स्वर्ण सिंह पर दहाड़ा। कई अखबारों के फोटोग्राफर भी अपनी अखबारों में इन टूटते आशियानों के फोटो छापने के लिए पहुंच चुके थे। कोई बच्चों की फोटो खींच रहा था तो कोई बड़े साहब के साथ बहस रहे स्वर्ण सिंह की। आखिर गरीब के लिए गरीब का दिल ही पसीजा।
ये ठेकेदार कहां है, शर्मा जी,जाइये बुलाइये उसे .. बड़े साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर था। मीडिया के लिए अच्छा खासा मसाला तैयार हो रहा था। फोटोग्राफर मोबाइल से अपने अपने संपादकों और पत्रकारों को इस घटनाक्रम के बारे में बता रहे थे।
पुलिस भारी मात्रा में पहले ही मौजूद थी। स्वर्ण सिंह को अड़ते देखकर झोंपड़पट्टी वाले भी हल्लाशेरी दिखाने लगे। पांच मिनट पहले उनकी गुहार अब हक की लड़ाई में बदल गई।
ये क्या लगा रखा है स्वर्ण तूने, बुलडोजर क्यों नहीं चला रहा? अपनी गाड़ी से उतरकर ठेकेदार भी आगे आया।
ठेकेदार जी मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि इतनी सर्दी में ये बेचारे कहां जाएंगे,हम तो ये काम कुछ दिन बाद भी कर सकते हैं।
ये फैसला करना तुम्हारा काम नहीं है, अफसरों का है। तू वही काम कर रहा जिसके लिए तुझे तनख्वाह मिलती है। ठेकेदार ने स्वर्ण सिंह को समझाना चाहा।
मैं ये नहीं कर सकता,स्वर्ण ने टका सा जवाब दे दिया।
जानता है क्या कह रहा है तू,लगता है तुझे अपनी नौकरी प्यारी नहीं है। ठेकेदार ने धमकी दी।
इतने लोगों की बददुआ लेकर तो कोई नौकरी कर भी नहीं सकता। अपने सिर पर बंधा परना गुस्से में उतारकर फेंकते हुए स्वर्ण चलता बना। ठेकेदार ने दूसरे बुलडोजरों के ड्राइवरों की थोड़ी ना नुकर सुनने के बाद झोंपडिय़ां गिराना मान लिया। लेकिन स्वर्ण जो काम कर गया उसने झोंपड़पट्टी वालों के दिल बहुत जगह बना ली और सभी ने मिलकर प्रशासन के काम का जोरदार विरोध किया। भारी पुलिस बल के बावजूद अधिकारियों को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा। तीन महीने की मोहलत देकर वे चले गए।
अगली सुबह के अखबार स्वर्ण सिंह की कहानियां ही बयान कर रहे थे। लेकिन अब जब प्रशासन ने दो तीन बार की और मुशक्कत के बाद जमीन खाली करवाकर मल्टी नैशनल कम्पनी को बेच दी तो करोड़ों रुपए में बिकी इस जमीन पर बनने वाले मॉल की काल्पनिक कहानियां ही अखबारों की सुर्खियां थीं। हां, कुछ अखबारों ने कहीं-कहीं स्वर्ण सिंह की सिंगल कॉलम में फोटो सहित बाक्स आईटम भी छापी थी।



इन्द्रप्रीत सिंह

1 comment:

Megha Mann said...

great piece. A real life situation. Our media will continue to do such things unless and until they don't face teh same thing